Monday, February 27, 2006

लो कल्लो बात…

जहाँ लोग भूतों से डर कर "हनुमान चालीसा" पढने लगते हैं, वहीं कुछ "भूत" ऐसे भी हैं जो अपना "होना" सिद्ध करने के लिये नई तकनीक का सहारा लेने से भी नहीं हिचकिचाते।

एक ख्यात दैनिक से प्रकाशित खबर पर गौर कीजिये। और "हिम्म्त" हो तो "बात" भी कीजिए।


आल द बेस्ट!!!

Friday, February 24, 2006

क्या ईश्वर है?

बात बहुत छोटी है, और, पता नहीं जो मैं बता रहा हूँ वह कितनो को सच लगेगी और कितनो को समझ आयेगी। पर फ़िर भी, मन में बात आई है और लोगों तक पहुँचाने का माध्यम भी सहजता से उपलब्ध है तो कह देना ही बेहतर होगा।

मैं खुद को न आस्तिक कहता हूँ और ना ही नास्तिक। आस्तिक इसलिए नहीं क्योंकि मुझे "भगवान" को मनाने का तरीका नहीं पसन्द। मुझे कभी नहीं लगा कि "भगवान" पुजा करने से, आरती करने से, प्रसाद चढाने से या फ़िर मुर्ति के सामने आँख बन्द कर हाथ जोड कर खडे रह कर मन्त्रादि का जाप करने से आपकी बात सुन ही लेते हैं। नास्तिक इसलिए नहीं क्योंकि मुझे लगता है कि कोई तो शक्ति कहीं ना कहीं जरुर है जो "सब देखती है", "सब कंट्रोल करती है"। और फ़िर बात आस्था की भी होती है। हम विश्वास करते हैं कि सब कुछ बिगड़ने पर भी "कोई" तो है जो हमारी रक्षा करेगा। कब करेगा, कैसे करेगा यह कोई नहीं जानता। और शायद जान भी नहीं पाएगा।

यहाँ मैं यह भी कहुँगा कि अगर मैं आस्तिक हूँ तो किसी एक धर्म विशेष के लिए नहीं। यह मेरी आस्था है जो मुझे किसी मंदिर में भी वही महसूस करवाती है जो किसी मस्जिद के सामने से निकलने पर महसूस होती है। अगर मैं मंदिर में बिना हाथ जोडे भी खड़ा हूँ तो हो सकता है कि मैं उस "अज्ञात शक्ति" से कुछ अपने मन की बात कह रहा हूँ, कुछ "अच्छा" करने की सिफ़ारिश कर रहा हो सकता हूँ। मगर किसी मंत्र का जाप करने का विचार तक नहीं आता। वैसे यह एक बहुत ही सामान्य सा व्यहार है इंसान का कि - अपना बोझ अपने से बड़े के उपर डाल के खुद को बड़ा मुक्त सा समझता है, शांति पाता है। शायद यही आस्था है।

मैं एक वाकया बताना चाहुँगा जो किसी के लिए तो "चमत्कार" हो सकता है, पर किसी के लिए मात्र एक "संयोग"। अभी कुछ दिनों पहले मैं काफ़ी परेशान था। कारण, मेरा मोबाईल चोरी हो गया था। मोबाईल, वह भी पहला-पहला, हालांकि साल भर इस्तेमाल कर चुका था, मगर, मेहनत की कमाई के 5 रू भी जाया होते हैं तो दुःख होता है। मुझे तो होता है। मगर फ़िर भी, मोबाईल का इतना दुख नही था जितना उसमें स्टोर किये हुए डाटा का। किसी और के लिए भले ही वह काम का ना हो, मेरे लिये तो था। तो मैं दुखी था अपने डाटा के लिये। कुछ समझ नही आ रहा था। पुलिस अपना काम उनकी ही गति से कर रही थी। उम्मीद न के बराबर थी। और फ़िर वही याद आये- जिन्हें हम भगवान कहते हैं। मंदिर गया, "भगवान" से कुछ बातें की, मन थोड़ा शांत हुआ। खुद को समझाया कि अपनी ही किसी "action" की यह "reaction" है। घर पर पहले ही "गणेशजी" और "लक्ष्मीजी" की फ़ोटो लगा रखी थी। घर आकर सोच रहा था कि- ऐसे मामलो में "हनुमानजी" की ज्यादा धाक होती है, काश, मेरे पास उनकी भी कोई तस्वीर होती। अगले दिन जब आफ़िस जाने के लिए निकला तब भी यही बात मन में थी कि "बजरंगबली" को भी अपने घर ले आते हैं। यही सोचते सोचते मैं अपने बस स्टाप तक आ गया। पता नहीं क्या सोचा और बस स्टाप के बजाय स्टाप के पहले ट्राफ़िक सिग्नल के पास ही खड़ा रह गया। शायद यह सोचा होगा कि, सिग्नल पर बस रुकेगी तो वहीं से सवार हो जाऊंगा। फ़ुटपाथ पर ही इंतज़ार करने लगा। 5 मिनिट एक ही जगह खड़े रहने के बाद मैं स्वाभाविक रुप से चहलकदमी करते हुए थोडी दूर गया और एक पेड़ से टिक कर खड़ा हो गया। कुछ ही क्षणों पश्चात् अचानक ही मेरी नज़र जमीन पर पड़ी जहाँ एक छोटी सी तस्वीर पड़ी हुई दिख रही थी। थोड़ा गौर से देखा तो आश्चर्यचकित रह गया। देखने से लग रहा था कि कोई पाकेट कैलेण्डर है। सोचा कि कैसे लोग होते हैं, जो पिछले साल का कैलेण्डर फ़ैकते समय यह भी नही देखते कि क्या फ़ैक रहे हैं। "तिरंगा" तो बहुधा दिखता है हर 26 जनवरी या 15 अगस्त के बाद, "भगवान" की तस्वीर के भी वही हाल दिखे। मुझसे तो रहा नही गया, उठा ही ली। देखा तो जाना वह "बजरंगबली" की ही तस्वीर थी। मन में काफ़ी विचार आए, यूँ भगवान की तस्वीर मिलना, वह भी तब जब वही इच्छा थी, मगर विश्लेषण नहीं कर सका। कहने की जरुरत नहीं कि तब से वह तस्वीर मेरे पास है।

इस तरह "बजरंगबली" का मेरे पास आना (अब इसे तो मैं खुद चल कर आना ही कहुँगा) सिर्फ़ एक संयोग मात्र था या कुछ और, मैं किसी निश्कर्श तक नहीं पहुँच सका। शायद कोई इसे समझा सके।

मैंने यह कभी नही सोचा था कि किसी ऐसे विषय पर कुछ लिखुंगा, किंतु बात हुई ही कुछ ऐसी है कि लिखे बिना रहा भी नहीं गया। फ़िलहाल तो मन को कुछ शांति मिली है।

Thursday, February 23, 2006

नामांतरण (सही मायने में नामकरण), हमारे ब्लाग का!

बकौल "काका हाथरसी" -

नाम - काम के मेल का क्या है सामंजस्य,
नाम मिला कुछ और, तो, शक्ल अक्ल कुछ
और!!
कहीं पढा भी था, नाम से ही किसी का व्यक्तित्व झलकता है और उसकी पहचान होती है। सोचिए अगर "ताजमहल" का नाम सिर्फ़ चारमीनार होता तो? "लाल किले" का नाम लाल किला ना होते हुए लाल महल ही होता तो सोचिए किसी के सामने उसका कैसा इम्प्रेशन पड़ता?

किसी भी हाथी का नाम "टिंकू" या "चिंपू" नहीं होता। होता है तो - "जम्बो" टाईप का भारी भरकम नाम। कहने का मतलब यह है कि, हमने भी हमारे "ब्लाग" का नाम कुछ ऐसा रखने का विचार किया जिससे पढ़ने वाले पर उसका कुछ तो असर पडे। वैसे राज़ की बात यह है कि यह कीड़ा हममें जीतू भैय्या ने जगाया। बोले, लिख ही रहे हो तो अपना टाईटल भी अच्छा सा रखो। पहले खराब था - यह उन्होने बड़ी समझदारी से जता दिया। ठीक है भैय्या, बड़े-बुढ़े जो बोले, मान लिया करो। और कोई हो ना हो, कम से कम वो तो खुश रहेंगे आपसे।

तो फ़िर (जोर शोर से) नाम ढुँढा जाने लगा। तुरंत ही एक बात समझ में आ गई कि हम भारतीय, बच्चों के नामकरण के वक्त ज्योतिषों/पण्डितों से क्यों मश्वरा लेते हैं। अरे नाम की खोज करने में आपका "क्राईटिरीया" फ़िल्टर कर देते हैं ना, इसीलिए। भई अगर आपको कोई कह देगा कि सिर्फ़ "क", "त" या "म" से नाम रखना है - तो काम आसान हो गया कि नहीं?

तो भई, जो-जो नाम हमारे मूढ़ मगज़ में आए, वे तो पहले ही से "लोगों" ने चुरा रखे थे। मगर कुलबुलाहट तो हो ही रही थी कि नाम रखना है, नाम रखना है। तभी, मन के किसी कोने से आवाज़ आई - यूरेका - यूरेका!! बगल में छोरा, गली में ढिंढोरा? ब्लाग लिखने की कुलबुलाहट थी तो ब्लाग बनाया, अब नाम रखने की भी कुलबुलाहट!! तो फ़िर कुलबुलाहट ही क्यों ना रख दिया जाय? याने "आम के आम, और गुठलियों के भी दाम"।

हम लिख-लिख कर अपनी कुलबुलाहट निकालते रहेंगे, और पढने वाले ये सोच कर कुलबुलाते रहेंगे कि "या ईलाही, हम ना हुये"!! उन्हे ये नाम क्यों ना सुझा?

हाँ जी, और आखिरी खबर मिलने तक -ब्लाग्स के नाम पर अभी तक "कापीराईट" वगैरह का ठप्पा नहीं लगा जो कोई हमारी तरफ़ टेढी नज़रो से देखे कि ये तो हम सोच रहे थे, या, ये तो हमारा नाम है, तुमने कैसे रख लिया? अगर ऐसा है तो हमें "कारण बताओ" नोटिस ना दिया जाय। सिर्फ़ एक इ-पत्र या एक टिप्पणी प्रेषित करना ही काफ़ी होगा, और हम "माण्ड्वली" कर लेंगे। याने कि या तो आपको शीशे में उतार लेंगे या पटा लेंगे या डरा धमका लेंगे या फ़िर ऐडा बन के पेडा खा लेंगे। और आपको कुलबुलाने पर मजबूर कर देंगे। :)

Tuesday, February 21, 2006

यह काम नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिए…

पहले तो खुद decide करो,
फ़िर manager से मिलो,
उसको convince करो,
उसका approval लो…

यहाँ तक तो सब Normal चलता है, मगर इसके बाद जो दास्तां शुरु होती है वह Private Sector की एक बडी IT Company में भी "सरकारी दफ़्तर" की मौजुदगी का अहसास दिला देती है। और शायद अभी तक "पंकज कपूर" का ध्यान इस पर गया नही, वरना Office-Office की एक और कडी तैयार मिलती।

आज मुझे एहसास हुआ कि - किसी company में आने से ज्यादा मुश्किल होता है वहाँ से जाना। बुलाने के लिये तो HR पलक पाँवडे बिछा के स्वागत करते हैं, पर जाते समय आप उनके लिये एकदम "अस्पर्श्य" जैसे ही हो जाते हैं। आपकी कोई पुछ परख ही नही रहती। आप खुद को उनकी priority श्रेणी में बिल्कुल अंतिम स्थान पर पाते हैं। एक एक approval लिये बार बार चक्कर काटो, उनकी चिरौरी करो। उफ़्फ़!! इससे तो अच्छा था कि जहाँ हो वही रहो। मगर हाय रे! "तरक्की की चाहत", तुझे avoid कैसे करें??

तो अब तक तो आप समझ ही गये होंगे कि मैं क्या "गुबार" निकाल रहा हूँ। नहीं?? अरे मैं एक बढिया सी, आराम की नौकरी को त्याग कर, एक नई, अनजान सी जगह पर, नये लोगों के बीच, जाने की राह पर निकल पडा हूँ। बकौल "शाहरुख खान" -

दिल है, मेरा दीवाना, यारों मैं तो चला, माना मंज़िल दूर है, पर जाना ज़रुर है, ऐ दोस्तों अलविदा…!!

तर्जुमा:
दिल - यहाँ दिमाग पढेँ
दीवाना - तरक्की के लिये कटीबद्ध
मंजिल - बताऊँगा बताऊँगा, थोडा इंतज़ार कीजिए

तो मैं "रो" (बता) रहा था कि - manager, system admin, library, training dept, admin, finance, HR etc etc...में चक्कर काटते काटते मुझे तो अपने फ़ैसले पर वो क्या है ना - कभी कभी डाऊट होने लगता है। खैर, "जब ओखली में सर दिया तो मूसल से क्या डरना"। क्या कहते हैं आप?

मुन्ना भाई MBBS का (modified) dialog: अरे सर्किट, ये स्साला company में 256 तरह के departments होते हैं, अपन स्साला join होते समय सोचते हैं क्या?

चलो, मैं फ़िर चलता हूँ मेरा form आगे बढाने की कवायद करने। updates देते रहुँगा। किसी को shortcuts पता हो तो सलाह दीजिए, एक अदद शुक्रिया ज्ञापित करूँगा आपको।

(अगली कडी)

Saturday, February 11, 2006

हनुमान चालीसा

श्रीगुरू चरण सरोज रज, नीज मनु मुकुर सुधारि,
बरनऊ रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फ़ल चारि ॥1॥

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौ पवन कुमार,
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहू कलेस विकार ॥2॥

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर,
जय कपिस तिहू लोक उजागर ॥3॥

राम दूत अतुलित बल धामा,
अंजनी पुत्र पवनसुत नामा ॥4॥

महावीर बिक्रम बजरंगी,
कुमति निवार सुमति के संगी ॥5॥

कंचन बरन बिराज सुबेसा,
कानन कुंडल कुँचित केसा ॥6॥

हाथ बज्र और ध्वजा बिराजे,
काँधे मुँज जनेऊ साजे ॥7॥

शंकर सुवन केसरी नंदन,
तेज प्रताप महा जगवंदन ॥8॥

विद्यावान गुनि अति चातुर,
राम काज करिबै को आतुर ॥9॥

प्रभु चरित्र सुनिबै को रसिया,
राम लखन सीता मनबसिया ॥10॥

सुक्ष्म रूप धरि सियहि दिखावा,
विकट रूप धरि लंक जरावा ॥11॥

भीम रूप धरि असुर सँहारे,
रामचंद्र के काज सवाँरे ॥12॥

लाये सजीवन लखन जियाए,
श्री रघुवीर हरषि उर लाए ॥13॥

रघुपति किन्ही बहुत बड़ाई,
तुम मम प्रिय भरत-हि सम भाई ॥14॥

सहस बदन तुम्हरो जस गावै,
अस कहि श्रीपति कंठ लगावै ॥15॥

सनकादिक ब्रम्हादि मुनिसा,
नारद सारद सहित अहिसा ॥16॥

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते,
कवि कोविद कही सके कहाँ ते ॥17॥

तुम उपकार सुग्रीवहीं किन्हा,
राम मिलाय राज पद दिन्हा ॥18॥

तुम्हरो मंत्र विभीषण माना,
लंकेश्वर भये सब जग जाना ॥19॥

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू,
लिल्यो ताहि मधुर फ़ल जानु ॥20॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि,
जलधि लाँघी गए अचरज नाहि ॥21॥

दुर्गम काज जगत के जेते,
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥22॥

राम दुआरे तुम रखवारे,
होत ना आज्ञा बिनु पैसारे ॥23॥

सब सुख लहैं तुम्हारी शरना,
तुम रक्षक काहु को डरना ॥24॥

आपन तेज सम्हारो आपै,
तीनों लोक हाँक तै कापै ॥25॥

भूत पिशाच निकट नहि आवै,
महावीर जब नाम सुनावै ॥26॥

नासै रोग हरे सब पीरा,
जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥27॥

संकट तै हनुमान छुडावै,
मन करम वचन ध्यान जो लावै ॥28॥

सब पर राम तपस्वी राजा,
तिन के काज सकल तुम साजा ॥29॥

और मनोरथ जो कोई लावै,
सोहि अमित जीवन फ़ल पावै ॥30॥

चारों जुग परताप तुम्हारा,
है प्रसिद्ध जगत उजियारा ॥31॥

साधु संत के तुम रखवारै,
असुर निकंदन राम दुलारै ॥32॥

अष्ट सिद्धि नौ निधी के दाता,
अस वर दीन जानकी माता ॥33॥

राम रसायन तुम्हरे पासा,
सदा रहो रघुपति के दासा ॥34॥

तुम्हरे भजन राम को पावै,
जनम जनम के दुख बिसरावै ॥35॥

अंतकाल रघुवरपूर जाई,
जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई ॥36॥

और देवता चित्त ना धरई,
हनुमत सेहि सर्व सुख करई ॥37॥

संकट कटै मिटै सब पीरा,
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥38॥

जै जै जै हनुमान गुसाईँ,
कृपा करहु गुरु देव की नाई ॥39॥

जो सत बार पाठ कर कोई,
छुटहि बंदी महा सुख होई ॥40॥

जो यह पढे हनुमान चालीसा,
होय सिद्धी साखी गौरिसा,

तुलसीदास सदा हरि चेरा,
किजै नाथ ह्रदय मह डेरा,

पवन तनय संकट हरन, मंगल मुरती रूप ॥
राम लखन सीता सहित, ह्र्दय बसहु सुर भुप ॥