Friday, March 31, 2006

एक दीवाना नेट पर...

एक दीवाना नेट पर,
वर्डप्रेस पर या ब्लागर पर,
लिखने का बहाना ढुंढता है,
और छपने का बहाना ढुंढता है.

इस हिन्दी ब्लागिंग की दुनिया में अपना भी कोई ब्लाग होगा,
अपने पोस्टों पर होंगी टिप्पणियां, टिप्पणियों पे अपना नाम होगा,
देवनागरी के यूनिकोड फ़ोण्टों में लिखने का जतन वो ढुंढता है,
ढुंढता है,
लिखने का बहाना ढुंढता है,
और छपने का बहाना ढुंढता है.

एक दीवाना नेट पर,
वर्डप्रेस पर या ब्लागर पर,
लिखने का बहाना ढुंढता है,
और छपने का बहाना ढुंढता है.

जब सारे हिन्दी में...
सारे? और हिन्दी में!
जब सारे हिन्दी में लिखते हैं, सारा नेट हिन्दी हो जाता है,
सिर्फ़ इक बार नहीं फ़िर वो लिखता, हर बार लिखता जाता है,
पल भर के लिये..
पल भर के लिये..
किसी ब्लागिंग का अवार्ड भी जीतना चाहता है,
चाहता है,
लिखने का बहाना ढुंढता है,
और छपने का बहाना ढुंढता है.

एक दीवाना नेट पर,
वर्डप्रेस पर या ब्लागर पर,
लिखने का बहाना ढुंढता है,
और छपने का बहाना ढुंढता है.

Wednesday, March 29, 2006

मिल गया, हमको तोहफ़ा मिल गया...

रवि भाई को बहुत बहुत शुक्रिया जो उन्होने हमारे जन्मदिन की सालगिरह (जीतू भैय्या ध्यान दें) के उपलक्ष्य में बतौर उपहार पुरा का पुरा 'पोस्ट' ही हमारे नाम कर दिया. भले ही जबरन माँग के लिया है, पर अब तो हमारा है.

काफ़ी दिनों बाद एक 'इंटैलेक्चुअल' तोहफ़ा मिला है. सधन्यवाद एवं सहर्ष अंगीकृत!!

तोहफ़ा मिलते ही सोचा टिप्पणी दी जाये, मगर फ़िर लगा कि सिर्फ़ टिप्पणी देना रवि जी के दिये गये तोहफ़े की शान में गुस्ताखी होगी, इसलिये 'पलट पोस्ट' कर रहा हूँ.

अब लोगबाग सोच रहे होंगे कि इसमे 'इंटैलेक्चुअलपना' कहाँ है, तो बंधुवर, अगर कोई जिन्दगी के फ़लसफ़े साफ़ सुंदर सटीक शब्दों में आपको टिका रहा है तो वह भले लोगों की भाषा में 'इंटैलेक्चुअलिटी' ही कहलाती है.

वैसे मेरा तो मानना है कि जीवन में ३ "" का बडा महत्व है, और इन्ही तीन "प" के कारण सब लोग पागल रहते हैं.

ये ३ 'प' हैं- प्यार, पैसा और परेशानी.

इन तीनों का काम एक दुसरे के बिना नहीं चलता, या यूँ कहें कि ये तीनो एक दुसरे के पूरक हैं तो भी अतिश्योक्ति ना होगी.

प्यार और पैसा जहाँ आ जाता है, वहाँ पीछे पीछे परेशानी भी आ ही जाती है. मगर जहाँ प्यार और पैसा नहीं; मियां जहाँ इनमें से कोई नहीं वहाँ पहले ही से परेशानी के अलावा क्या रहेगा?

रवि जी ने बडी सफ़ाई से हमें (सबको) ये समझाने की कोशिश की है कि-'खबरदार, अभी भी वक्त है, मान जाओ', मगर क्या करें? 'दिल तो पागल है, दिल दीवाना है..'

अब अपना तो 'दिल है कि मानता नहीं..', और फ़िलहाल तो प्रसन्न हैं और इंतजार कर रहे हैं (रवि जी की लिस्ट में अंतिम से तीसरा बिन्दु).
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चाहता तो था कि और बहुत लिखुँ मगर क्षमा चाहता हूँ.

पहली बार अपने जन्मदिन (जीतू भैय्या, हम तो "जन्मदिन" ही बोलेंगे आप चाहे जो समझिऐ) पर अपने प्रियजनों से काफ़ी दूर बैठा हूँ, खुद फ़ोन कर कर के शुभकामनाऐं लेनी पड रही है, और 'होम सिकनेस', 'फ़्रेण्ड्स सिकनेस', 'इंडिया सिकनेस' न जाने कौन कौन सी सिकनेसें होने लगी है.

अब तो और लिखा नहीं जा रहा.

खत को तार और थोडे को बहुत समझिऐ.

शब्ब-बह-खैर!!

Friday, March 24, 2006

हिन्दी का शब्दकोष

शायद कोई (और) तो ऎसा होगा जिसे इसके बारे में नहीं पता होगा,
क्योंकि थोडी देर पहले तक मुझे भी नहीं पता था.

यहाँ आप अंग्रेजी के शब्दों की हिन्दी में अर्थ सहित व्याख्या खोज सकते हैं:

शब्दकोष (http://www.shabdkosh.com)

हममें से कोई इसे भी समृद्ध बनाने में अपना योगदान दे सकता है.

Wednesday, March 22, 2006

फ़िर ना कहना कि बताया नही...

ऎसा ना हो कि:-
सांप निकल जाय और आप लोगों के पास लकीर पीटने के अलावा कुछ ना बचे!
या फ़िर चिडिया खेत चुग जाये और आप लोग बस पछताते ही रह जायें!
या फ़िर "का वर्षा जब कृषि सुखानी" इस टाईप का कुछ हो जाये!

याने कि बचपने में सुनी हुई ऎसी कोई भी कहावत आपकी आपबीती ना बन जाये,
और आप लोगों को मुझसे मुँह छिपाते फ़िरना पडे.

ऎसी किसी भी शर्मनाक स्थिति से आपको बचाने के लिये ही मैं आज ये लिखने बैठा हूँ.

तो बन्धुओं, भाईयों और बहिनों, दोस्तों और दोस्तनियों, नियमित मेरे ब्लाग पर भ्रमण करने वालों, और अनियमित रुप से पधारने वालों, यहाँ तक कि भूले भटके आने वालों से भी मेंरा नम्र निवेदन है कि आप लोग अभी से बचत करना प्रारंभ कर दीजिये, बाद में पैसे वगैरह की किल्लत का बहाना नहीं चलेगा और ना ही हम ये सुनेंगे कि महीने के आखिरी दिन है वगैरह वगैरह.

क्या? क्या पुछ रहे हैं? क्यों?

अरे! आज से ठीक ७ दिनों बाद हमारी जन्म की वर्षगांठ है,
याने कि सालगिरह,
याने कि जन्मदिन,
याने कि अपना हैप्पी बड्डे टू यू है यार!

क्या कहा? जमा की गई धनराशि का क्या करना है ?

अरे यार, आप भी अजीब हो, अरे जन्मदिन पर खाली हाथ चले आओगे क्या?
कोई गिफ़्ट-विफ़्ट लाने का इरादा है कि नही?

जैसे:-
जीतू भैय्या कुवैत से एक आध छोटा मोटा तेल का कुँआ देने वाले हैं,
मिश्राजी अपनी रसायनशास्त्र की कुटी में से मेंरे लिये कुछ "आयु घटाओ" वटी बना कर देने वाले हैं,
रवि जी तो मेरे लिये अपने कुछ अनुवाद लाने वाले हैं,
तरुण और रमण कौल जी तो अमरीका से कुछ भारी ही चीज ला रहे लगता है,
पंकज एवं संजय बेंगाणी जी अहमदाबाद से मेरे लिये ताजा तरीन ब्लाग शुरु करने वाले हैं,
अनुनाद सिंह जी तो अपने इन्दौर ही के हैं, नमकीन और सराफ़े की मिठाईयों के अलावा कुछ और लाने का सवाल ही कहाँ,
हाँ, समीर लाल जी कनाडा से उडनतश्तरी ही भेजने वाले हैं ऎसा लगता है.

हाँ बाकी आप लोग आपस में सिन्क्रोनाईज्ड रहिये, ऎसा ना हो कि कोई एक ही गिफ़्ट दुबारा मिल जाय.

तो मित्रों याद रहे २९ मार्च २००६ (सन भी लिख दिया है ताकि गडबडी की कोई गुंजाईश ना रहे) तक आप सबके तोहफ़े मिल जाने चाहिये, वरना ऎसा 'कुलबुलाऊंगा' कि आप लोग अपना ब्लाग भी मेरे नाम कर देंगे.

आपका अपना - विजय वडनेरे

Thursday, March 02, 2006

क्या से क्या हो गया…?

अभी कहीं से एक जालस्थल पन्ने की लिंक मिली।

वैसे बात यह है कि,
अब इतिहास बदलना तो मुमकिन नहीं है,
और गड़े मुर्दे उखाड़ने से भी कोई फ़ायदा नहीं है,
मगर पढ कर महसूस हुआ कि चचा की श्मशीर ने कोई कसर नहीं छोड़ी।

मगर अब तो यही कहना है:
"बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेई"

ये हैं हमारे चचा…!!!

आईऐ, आपका तवारूफ़ करवाऐं हमारे एक अज़ीज़ से।

प्यार से हम इन्हें चचा कहते हैं। वैसे तो हम इन्हें काफ़ी इज्जत बख्शते हैं, और प्यार भी करते हैं, पर क्या है ना कि चचा कभी कभी हमसे नाराज़ हो जाते हैं। रूठ जाते हैं। अब क्यों नाराज़ होते हैं ये तो खुद इन्हे नही पता होता। बस्स हो ही जाते हैं। अब नाराज़गी में तो ये क्या करें इसका पता इनको खुद नहीं रहता। कभी ये खुद का नुकसान करते हैं, और कभी जहाँ रहते हैं वहाँ का।

वैसे तो इन्हें काफ़ी समय हो गया है हमारे साथ रहते रहते, पर अभी भी अपनी जड़ों को भूले नहीं है। कभी वहाँ खोदते हैं और कभी यहाँ, गरज ये कि "खुदाई" बिना इन्हे चैन नहीं। इनका बस चले तो ये जहाँ जहाँ जमीन का टुकडा दिख रहा है वहाँ भी खुदाई कर डालें।

एक मजे की बात बताते हैं। वैसे इनकी जन्मभूमि रेगिस्तान में कहीं थी। इनके कई सारे नाते रिश्तेदार अभी भी वहीं रहते हैं। अब रेगिस्तान में कहीं हरियाली तो होती नहीं ना, सो वहाँ इन्हे हरे रंग का महत्व सीखाया इनके एक गुरु ने। उनका आशय यह रहा होगा कि हरे रंग को देख कर अपने लोगों को थोड़ा सुकून मिलेगा और अमन से रहेंगे। मगर चचा ने तो कुछ और ही मतलब निकाल लिया, और बस्स निकल पड़े सारी दुनिया को हरे रंग से रंगने। अब इन्हें ये तो पता नहीं था कि सारी दुनिया थोड़े ना कोई रेगिस्तान है जो हर जगह हरे रंग की जरुरत है। मगर अब इन्हें कौन समझाए।

एक बात और है। पहले चचा के सारे नाते रिश्तेदार छोटी छोटी बातों को लेकर आपस में ही लड़ते रहते थे। यह देख कर इनके बड़े बुज़ुर्गों ने कुछ नियम कायदे लिखे। वैसे मानना पडेगा कि पुराने समय में भी उन लोगों ने काफ़ी आगे का सोचा और बहुत कुछ लिखा और बहुत खुब लिखा। अब देखा जाये तो जो भी लिखा वो सब चचा और चचा के नाते रिश्तेदारों के लिये ही लिखा था, मगर चचा तो चचा ठहरे, उन्होने तो अपनी श्मशीर उठाई और निकल पड़े जो लिखा था वो अमल करवाने। जो मिला उससे ही जिद कर बैठे कि मियां हम तो मानते ही हैं - तुम भी मानो। यह तो वही बात हुई कि - "मान ना मान, मैं तेरा मेहमान"। बरसों बीत गए, पर चचा की श्मशीर नहीं थमी। अभी भी चल ही रही है।

अब चचा की एक और खास आदत है। खुदाई करते हैं और "नेमतें" इकठ्ठा करते चलते हैं। घर में जगह नहीं होती कुछ और समाने की, मगर मजाल है कि खुदाई रुक जाये। पहले से जमा चीज़े धूल खा रही हैं, अटाला हो रही है, उसकी कोई परवाह नहीं। इन्हें तो बस जूनून है खुदाई का। हो सकता हो कि इनका ये सोचना हो कि भई जितनी चीज़े ज्यादा रहेंगी, उन पर हरा रंग करेंगे तो हर तरफ़ हरियाली ही हरियाली दिखेगी। अब ये कहाँ तक सही है ये तो पता नहीं।

मगर हमें तो चचा से बेहद प्यार है। अब जैसे भी हैं, हमारे अपने हैं। पहले भले ही मेहमान थे, मगर अब हमारा ही एक हिस्सा है। इनकी तो ज़बान, तहज़ीब हमें बहुत पसन्द है। बस कभी कभी इनकी हरकतों पर थोड़ा रंज होता है।

कैसे लगे आपको हमारे चचा?? बताईयेगा जरूर!!

Wednesday, March 01, 2006

जो होता है, (शायद) अच्छा ही होता है

किन्ही कारणों से उदास था, अचानक कुछ याद आया, अपने ई-मेलबाक्स को टटोला, एक पुरानी ई-मेल खोली, उसे पढा - थोड़ा मन को अच्छा लगा। वही कहानी यहाँ छाप रहा हूँ, हिन्दी में। देखिये किसे पसंद आती है, और कौन इससे (शीर्षक से) इत्तेफ़ाक रखता है:-

एक कमज़ोर सा दिखने वाला व्यक्ति बार में अकेला बैठा था। उदास सा। बस, बैठे बैठे
अपने ड्रिंक के ग्लास को टकटकी लगाकर देख रहा था। दीन-दुनिया से बेखबर सा। तभी बार
में "दादा" टाईप के एक व्यक्ति ने प्रवेश किया। इधर-उधर लोगों को धौल जमाता हुआ,
अपना रौब झाड़ता हुआ, बार काउंटर तक पहुँचा, जहाँ अपना नायक मुँह लटका के बैठा था।
आते ही उसने अपने हीरो का जाम झटके से छीना और "गटाक" से एक ही सांस में खाली कर
गया। फ़िर गरज़ा- "बच्चे!! अब बोल, क्या बोलता है?"

"कुछ नहीं यार!", ठंडी आह भर कर नायक बोला, "आज
मेरी जिंदगी का सबसे खराब दिन है। आज सुबह मैं ज्यादा सो गया। देर से उठने के कारण,
अपने आफ़िस देर से पहुँचा और एक अति महत्वपूर्ण मिटिंग में नही शामिल हो पाया। मेरा
बास बहुत नाराज़ हुआ, इतना कि उसने मुझे नौकरी से ही निकाल दिया। खैर, अपना सामान
समेट कर जब मैं अपनी कार तक पहुँचा तो क्या देखा कि मेरी कार वहाँ नही थी, कोई उसे
भी चुरा ले गया। मरता क्या ना करता, टैक्सी पकड़ी और घर तक पहुँचा। जब टैक्सी वाले
को भाड़ा देना था तो देखा कि मेरा बटुआ भी नहीं है। वो भी गाली बकता हुआ चला गया। जब
मैं घर में घुसा तो क्या देखता हूँ कि मेरी पत्नी, मेरे ही घर के माली के साथ मेरे
ही बिस्तर में बेवफ़ाई की सारी हदें पार कर रही है। आखिरकार मैंने घर ही छोड़ दिया और
यहाँ इस बार में आ कर बैठा। और जब मैं इन सारी झंझटो से मुक्ति पाने वाला था
तो अचानक तुम कहीं से आए और मेरा ज़हर से भरा ग्लास भी पी गऐ……
"