स्वार्थ जब खुद का
पूरा ना कर पाएं,
तो दुनिया को स्वार्थी कहते हैं।
करने की होती है जब खुद की बारी,
हाथों से दोनों,
जेब अपनी भरते हैं।
संसद में कर
बेकार की बहस,
ध्यान जनता का हरते हैं।
शिकायतों के अम्बार
सड़क पर लगाते,
खुद जिम्मेदारी से बचते हैं।
अच्छे दिन देख आते
किसी दूसरे के कारण,
अब अच्छे दिन से भी जलते हैं।
अच्छी बातों का जिक्र तक नहीं,
गलतियों को तो,
खूब हाइलाइट करते हैं।
विकास की सोच नहीं,
बस सरकार गिराने के
षडयंत्र करते रहते हैं।
आप के पीछे,
है किसका हाथ,
ये अब सब समझते हैं।
लोग भूल ना जाएँ उनको,
इसी फ़िक्र में जाने
क्या क्या जतन करते हैं।
इंकलाब जिंदाबाद कह के
सिर्फ भगतसिंह नहीं, कोई
कनैहया तो कोई केजरीवाल भी बनते हैं।
ये कहानी तुम्हारे और मेरे
घर की ही नहीं, पूरे देश में,
ऐसे ही हालात दिखते हैं।
- विजय वडनेरे