Thursday, November 30, 2006

गहरा षडयंत्र

मैं आज आप सभी भाई बंधुओं का ध्यान एक "गहरे षडयंत्र" की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ।

आज (इन्फ़ैक्ट - कल, टू बी मोर प्रिसाईज़) मेरे साथ हुआ, हो सकता है आगे भी किसी और के साथ ऐसा हो जाये, सो पहले ही आपको आगाह कर देना चाहता हूँ।

आपको पता ही होगा कि आजकल कोई भी मशहूर चोर, चोरी के बाद मौका-ए-वारदात पर अपना "हस्ताक्षर" छोड़ जाता है ताकी लोग जान जायें कि ये किसकी "करतूत" है (अब ये भी नहीं पता तो भई "धूम २" देख लो) ठीक इसी तर्ज पर आजकल ब्लाग जगत में भी एक इसी तरह का क्रिमिनल खुल्ले आम घुम रहा है।

उस "क्राईम मास्टर गोगो" ने भी अपना एक स्टाईल विकसित कर लिया है। वैसे वो "क्रिमिनल" है तो काफ़ी होशियार। किसी का भी गला इस तरह से काटता है कि कटने वाले को पता भी नहीं चलता कि कब गर्दन कट गई। क्या कहा? यकीं नहीं होता, हमारे आर्काईव से यह खबर पढें। अब तो आया ना यकीं?

तो मैं बता रहा था कि किस तरह से इस मास्टर माईंड क्रिमिनल ने अपना टेरर (आतंक) फ़ैलाया हुआ है, कि अगर कोई क्राईम किसी छोटे मोटे चोर ने भी किया हो तो पहला "शक" डायरेक्ट और बिलाशक "क्राईम मास्टर गोगो" पर ही चला जाता है। और वो ही सारा का सारा "क्रेडिट" ले जाता है।

अब आप ही कहो, कोई भला मानुष, दिन भर की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद, कुछ नेक काम करे, और उस पर भी उसका क्रेडिट कोई भलता ही ताड ले, तो दिल दुखेगा कि नहीं? बताओ..! बताओ..!! टेल ..टेल..!!

अब मैं यहाँ क्राईम के शिकार और क्रिमिनल का अता पता तो नहीं बताता...! मगर हाँ, क्राईम सीन १ और क्राईम सीन २ पर जरुर ले चलता हूँ. इसके पहले कि कोई आ के सबूत मिटा जाये, आप सब गवाहों की लिस्ट में आ जाओ।

जहाँ तक षडयंत्र की बात है - वो ऐसा है कि - बड़ी मछली छोटी मछलियों को ऐसे ही तो खा जाती है - जब मार्केट में बड़े बड़े लोग ही सारे क्राईम करेंगे तो हम जैसे छोटे-मोटे उठाईगिरों का पता नहीं क्या होगा? आज एल मामूली सी टिप्पणी के जरिये नाम चुरा लिया गया है, कल हो सकता है मेरी पोस्ट ही तड जाये!! आप लोग भी होशियार रहियेगा।

जाने क्या होगा रामा रेऽऽऽऽ ....जाने क्या होगा मौला रेऽऽऽऽऽऽ

वैसे थोड़ा बहुत करमचंद और शर्लाक होम्स बनने का मौका दे दिया है आपको, फ़िर भी यदि नहीं समझ पाओ तो हमसे पुछना बाद में.

Tuesday, November 28, 2006

घाटे की बाजी??

"केसिनो रोयाल" हमने अभी तो तक देखी नहीं, मगर, जिस तरह की कहानी, उसके चर्चे (और परखच्चे) सुन रहे हैं, रही सही कसर भी चली जा रही है उम्मीद की कि थियेटर जा के पैसे खर्चने लायक भी है या नहीं? या फ़िर घर पर ही इंतजार करें कि कभी किसी चैनल पर आ जाये या इंटरनैट पर कोई भला मानुस अपलोड कर दे.

अव्वल तो हम किसी फ़िल्लम के बारे में कभी लिखते नहीं...
मगर आज अमित का लेख पढ कर हमने सोचा कि भई विजय, जब लोगबाग फ़िल्मों की बधिया उखाड़ने के लिये उनके नाम का मतबल भी गूगल पर ढूँढ रहे हैं तो जरूर कोई ना कोई बात तो होगी फ़िल्लम में...!!

तपाक से हम भी गूगला -दिये..! अब कुछ विशेष तो ढुँढना नहीं था, सो, जो हाथ लगा परोसे दे रहें हैं.

हमें पता चला कि "जेम्स बाण्ड" सीरिज़ में इसी नाम से पहले भी एक फ़िल्लम आ चुकी है वो भी १९६७ में, और मजे की बात, बिल्कुल इसी तरह की "साधारण" रही थी.
याने अब ये नई वाली जब हमनाम हुई तो साथ ही साथ हमभाग्य भी हो गई.

उसके हीरो थे: पीटर सेल्लर.

आगे, बाकी का किसी को पढना हो तो यहाँ देखें..हम ना करेंगे अंग्रेजी का हिन्दी.!! हाँऽऽ!!

Thursday, November 02, 2006

सावधान! एक खतरनाक बीमारी!!

क्या आपको जानकारी है कि आजकल एक बेहद खतरनाक बीमारी ब्लागजगत में फ़ैली हुई है, जिसके शिकार/रोगी आजकल यत्र तत्र घुमते दिखाई देते हैं।
जिस किसी को भी ये बीमारी लग जाये, समझ लो उसकी तो वाट लग गई..!!

बीमारी के लक्षण? मैं बताता हूँ ना -
  • अंतर्जाल पर जरुरत से ज्यादा भ्रमण।
  • ज्यादा से ज्यादा जालस्थलों को कम से कम समय में देखने की लालसा।
  • ब्लाग्स (चिठ्ठों) पर अधिक मेहरबानी।
  • उसमें भी हिन्दी चिठ्ठों पर कुछ खास नज़र-ए-इनायत।
  • लगभग हर चिठ्ठे/जालस्थल से कुछ ना कुछ टीप (कॉपी) कर एक नोटपेड में मय लेखक के नाम से चेपना (पेस्ट करना)।
  • टिप्पणियों को और तस्वीरों को भी नहीं छोड़ना।
  • अपना अमुल्य समय देकर, जमा की गई जानकारी को संपादित करना।
  • और अधिक समय बिगाड कर लिखे हुये / संपादित किये हुये पर कलरबाजी (फ़ारमेटिंग) करना।
  • और अंततः इस प्रकार तैयार किये गये लेख को इस उम्मीद के साथ प्रकाशित कर देना कि लोग उससे लाभ उठायेंगे।
  • (और भी बहुत सारे लक्षण हैं - उपरोक्त तो महज उनमें से प्रमुख ही हैं)
अभी तक के ज्ञात केसेस:
  • देबाशीष (काफ़ी दिनों से बीमारी के लक्षण दबे हुये हैं - लगता है ठीक हो रहे हैं)
  • अनुप शुक्ला (फ़्रिक्वेंट फ़्लायर हैं, बीमारी हायर स्टेज पर है)
  • जितेन्द्र चौधरी (मजे मजे में बीमारी के किटाणु छू गये लगता हैं)
  • समीर लाल (विशिष्ट कलात्मक रोगी, ये रोग फ़ैलाने में काफ़ी माहिर हैं)
  • राकेश खंडेलवाल (सिरीयसली और रेग्युलरली बीमार)
  • संजय बेंगाणी (छोटे छोटे दौरे पडते हैं)
  • (और भी काफ़ी बीमार हैं, सूची यहाँ है)
इनमें से "संजय बेंगाणी" नामक रोगी तो थोडे स्पेशल केस हैं, इन्हें रह रह कर अचानक बीमारी के झटके आते हैं और ये भोजनावकाश के पहले या बाद में अचानक इसके प्रभाव में आ जाते हैं।

अभी अभी विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि हमारे प्रिय मित्र "सागरचंद नाहर" भी इसी बीमारी के लपेटे में आ गये हैं, और ये रोग लगा बैठे हैं.

तो मित्रों ये बिमारी एक संक्रामक रोग है, और हमें अपने प्रियजनों को इस व्याधि से पीडित होने से बचाना है।
अतः अपने आस पास देखिये, अगर आपको किसी में भी इसके थोडे भी लक्षण दिखते हैं तो तुरंत बचाव के उपाय कीजिये।
हाँ, उस दौरान खुद को संक्रमण से बचाय रखना आपकी खुद की जिम्मेदारी है।

पुराने रोगी अक्सर ये बड़बड़ाते पाये जाते हैं:
  • ...बहुत अच्छा लिखते हो...कुद पडो मैदान में..
  • ...निमंत्रण भेजते हैं...
  • ..क्या लिखते हो? एक छोटा सा काम है...
  • ...एक सामाजिक काम है...करोगे क्या?...
अगर आपके ब्लाग पर टिप्पणी में या किसी ईमेल में उपरोक्त में से कुछ दिखाई दे तो समझ जाइयेगा कि कोई आपके उपर भी बीमारी के किटाणु छोड़ रहा है। तुरंत सावधान हो जाइये।

अरे! इस बीमारी का नाम तो सुनते जाइये - इसका नाम है - चिठ्ठाचर्चा !!

आपका शुभचिंतक!
(यकिन मानिये - अभी तक तो इस रोग के लक्षण छू के भी नहीं गये हमें)

Saturday, October 21, 2006

क्या दिवाली? क्या ईद?

अब ये क्या बात हुई? क्या दिवाली क्या ईद! यही सोच रहे हैं ना आप लोग?

हाँ भई, पता है पता है, अब आप लोग तो यही कहेंगे कि -अरे खुरामा खुरामा शादी हुई है..और ये विचार? है ना?

तो जनाब बात ये है कि (शादी के बाद) पहली पहली दिवाली है...तो सारे परिवार के साथ खुशियाँ मनाते, दोस्तों के बीच हुडदंग होता, मगर कहाँ?? घर से कोसों दूर...पड़े हैं अलग-थलग किसी और दुनियाँ में. अकेले-अकेले (हाँ यार..! मैडम तो है, पर मैं - हम दोनों अकेले-अकेले हैं - ऐसा कह रहा हूँ).

दिवाली के पहले की साफ़ सफ़ाई, फ़िर घर की सजावट - फ़ूलों के हार, लाईटिंग वगैरह, फ़िर दिये बाती, नये कपडे, आतिशबाजी, पटाखे, आस पड़ोस में मिलने जुलने जाना, दोस्तों रिश्तेदारों का अपने घर आना.

यह पहली दिवाली होगी जब- हम अपने परिवार के साथ नहीं हैं.

इसके पहले तो ऐसा होता था कि - जहाँ भी होते थे, जैसे तैसे कर के, दिवाली के समय घर पहुँच ही जाते थे. तो इस बार, ऐसा कुछ नहीं है.

और फ़िर ईद! आहा! सिवैयां...शीर खुरमा डली हुई सिवैयां!! अभी तक तो कहीं से इस बार ऐसा कुछ होता नज़र नहीं आ रहा. :(

वैसे, वीकेण्ड जोड़ कर चार दिन की छुट्टियाँ तो हैं - पर वो क्या है ना कि - नंगा नहायेगा क्या, निचोडेगा क्या.
अमा यार आने जाने में ही चार दिन निकल जायेंगे हैं - हाँ कहने को जरुर सिंगापुर "पास" में है.

अब हम यह जरुर सोचते हैं कि काश हमारा परिवार बंगलौर या चेन्नई या फ़िर हैदराबाद में होता, कम से कम डायरेक्ट फ़्लाईट तो होती. अब इंदौर जाना हो तो पहले मुंबई उतरो, फ़िर अगली सुबह इंदौर की फ़्लाईट पकडो.

तो जनाब, आपको बताया जरुर जायेगा कि सिंगापुरी दिवाली कैसी रही - क्या कहा? कब?? अरे यार दिवाली होने तो दो. :)

तब तक तो आप, हमारी दोनों की तरफ़ से दिपावली और ईद की हार्दिक शुभकामनाएँ तो रख ही लीजिए.

मनाएं पर्व,
घर आई घड़ियाँ
है खुशियों की.

दिवाली! ईद!
लो शुभकामनाएँ,
हम दोनों की.


-
प्रणोति व विजय वडनेरे
सिंगापुर.
२१ अक्तुबर २००६

Thursday, October 12, 2006

किस्सा-ए-डुप्लीकेट

आजकल मार्केट में हर जगह डुप्लीकेट आ रहे हैं, और ये USA* manufactured ब्राण्ड धडल्ले से बिक रहे हैं, यहाँ तक की हिन्दी ब्लाग जगत भी इससे अछुता नहीं रह पाया.

खबर है ना आपको?

क्या कहा??  नहीं?? - अरे आजकल एक विशेष टिप्पणीकर्ता, ब्लाग मार्केट में चल रहा है (चल रहा है या रही है -अब इतनी तो तफ़्सील नहीं है हमारे पास), और उनका काम क्या है कि - लोगों के ब्लाग्स पर जाते हैं (पढते है कि नहीं -ये मत पुछना), और बकायदा अपना निशान टिप्पणी के रुप में छोड़ आते हैं.

अब इनके "शिकार लोग" परेशान भी हैं और कुछ (मन ही मन) खुश भी.

खुश इसलिये कि - वाह! चलो ब्लाग पर टिप्पणी तो आई..
परेशान इसलिये कि - वो जनाब नाम किसी और का इस्तेमाल करते हैं; और टिप्पणी कुछ बेहुदा सी करते हैं.

याने एक पंथ  दो शिकार - दो कैसे? - अरे जिसके ब्लाग पर टिप्पणी मारी और जिसके नाम से टिप्पणी मारी.

इन्ही दूसरे टाईप के "शिका र्स" में एक अपने अदद जीतू भैया भी हैं. उनका गम तो और ज्यादा है - अब उन्हे हर ब्लाग पर ज्यादा से ज्यादा चक्कर लगाने पडते हैं और सफ़ाई देते रहना पडती है कि -"वो मैं नहीं था"!!

अंत में थक हार के उन्होने चिठ्ठाकारों के लिये अनाउंस कर दिया कि - "..भाई लोगों देख लो, ऐसा ऐसा हो रहा है...इसमें कोई विदेशी हाथ लगता है.."!

मगर अपने जासूसी / खुरापाती दिमाग में अचानक एक बिजली सी कौंधी कि -

कहीं ऐसा तो नहीं कि - वैसी मेल लिखने वाले खुद ही असली जीतू भैया ना हो....??
हो सकता हो कि "उस"को अपने जीतू भैया पर तरस आ गया हो और ऐसी उसकी तमन्ना हो कि- जीतू भैया- बेदाग रहें.

मगर कुछ भी हो - अपराध तो अपराध ही है - और सजा / प्रायश्चित का फ़ैसला सुनाने का सर्वाधिकार न्यायपालिका के हाथ में है, तो चलिये ढुँढते (यानि आप और हम खेलते) हैं कि - " अपराधी कौन?"

नही....वो क्या है ना कि अब असली नकली का पता तो लगाना ही पडेगा ना..??

तो जासूस विजय उर्फ़ "लोकल शर्लाक होम्स" के फ़ंडे ये है कि  -
  1. सबसे पहले तो हर एक को शक की निगाह से देखो (अगर आपको पुरानी फ़िल्मों के खलनायक के.एन.सिंह या प्राण की तरह एक भौंह टेढी करते आता है तो और बेहतर).
  2. फ़रीयादी को खुद -पाक साफ़ होने का सबूत देने को कहो.
  3. फ़रीयादी को बोलो की 'सो कॉल्ड' आरोपी को पकड़ लाओ या सुराग दो, तो (हमें) आसानी रहेगी (उसे सजा दिलाने/पकड़ने में).
  4. सारे असली लोगों के चेहरे/ब्लाग्स पर मार्क लगा दिया जाय (बकौल फ़िल्म अंदाज अपना अपना).
  5. असली ब्लागर्स के कम से कम ३ फ़ोटो (एक सामने, एक दाँयें और एक बाँये से) खींच कर बाकी सारे ब्लागर्स में डिस्ट्रीब्युट कर दिये जायें, और ये ताकीद कर दी जाये कि उन फ़ोटो से मिलते जुलते चेहरे वाला कोई भी व्यक्ति उनके ब्लाग पर टिप्पणी करता पाया गया तो कंट्रोल रूम में तत्काल संपर्क करे.
  6. अगर ये कोई बहुत ही चालाक अपराधी है तो फ़िर उसे पकडने का सरल तरीका ये है कि उसके किये गये अपराधों पर शिकार अपना खुद का अधिकार जताते चले. इससे अपराधी के ईगो को ठेस पहुँचेगी और वो या तो अपने आप सामने आ जायेगा या फ़िर कोई ऐसा आत्मघाती कदम उठायेगा जिससे वो बेनकाब हो जायेगा.
  7. सारे ब्लागर्स अपने अपने ब्लाग पर नजर गडा के बैठें, और जैसे ही कोई टिप्पणी आये, तुरंत सबको खबर करे और कन्फ़र्म कर ले. और जो भी "अं..आं...म्म्म्म..." इस तरह से बोलता नजर आये तो उसे "प्राईम सस्पेक्ट" की श्रेणी में डाल लिया जाय.
  8. सारे ब्लागर्स टिप्पणियों को सीरियसली लेना ही छोड़ दें, "जो चाहे आये...जो चाहे टिप्पणी करे हमारी बला से.." - टाईप का रुख इख्तियार कर लें. इल्लीगल टिप्पणी करने वाला अपने आप बोर हो कर कन्नी काट लेगा.
  9. अपने अपने ब्लाग्स सेक्युर कर के रखें - खुद लिखें और खुद पढें - और लगे तो (अगर पसंद आये तो) खुद ही टिप्पणी दें (टिप्पणी पर टिप्पणी भी खुद ही दें) - ना होगा बाँस ना बजेगी बाँसुरी.
  10. कुछ नुस्खे "फ़ुरसतिया" जी  के यहाँ से उधार लिये (ताडे) हुये हैं:
    1. सिर्फ़ एक ही ब्लाग ना रखें, एक ही ब्लाग की २ - ३ कापियाँ रखें, जैसे ही किसी एक पर फ़र्जी टिप्पणी दिखे तो, धडाक से दूसरे पर शिफ़्ट हो लो.
    2. जब एक चुर्मुक सी टिप्पणी से इतना डर, तो "भैय्ये..ब्लाग लिखते ही काहे हो??"
  11. अपने ब्लाग में कविताओं, छंदो, हाईकुओं, कुंडलियों के अलावा कुछ लिखो ही मत. और "हर आम-औ-खास" को सूचित कर दो कि -हम टिप्पणी भी उसी फ़ारमेट में स्वीकारेंगे. जो "सच्चा ब्लागर/टिप्पणीकर्ता" होगा वो ही टिप्पणी करने की माथाफ़ोड़ी करेगा.
फ़िलहाल के लिये तो बस, इतना ही.
आगे और ध्यान आयेंगे तो "सर्व साधारण" को सूचित किया जायेगा.

(ही.. ही.. ही ... मैं तो बस्स...ऐसे ही ...सोऽऽऽऽच रहाऽऽऽ था.)


टीप १: USA: उल्लासनगर सिंधी एसोसिएशन (कभी बचपन में सुना था)
टीप २: फ़र्जी टिप्पणीबाज से अपेक्षा है कि वो यहाँ भी पधारे (खातिरदारी का पूरा इंतजाम है)

Thursday, September 07, 2006

आईये, आज "वन्दे मातरम्" गाएं।

वन्दे मातरम्

सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्

शस्य श्यामलां मातरम् ।

शुभ्र ज्योत्स्न पुलकित यामिनीम

फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,

सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् ।

सुखदां वरदां मातरम् ॥ वन्दे मातरम्...


सप्त कोटि कन्ठ कलकल निनाद कराले

निसप्त कोटि भुजैब्रुत खरकरवाले

के बोले मा तुमी अबले

बहुबल धारिणीं नमामि तारिणीम्

रिपुदलवारिणीं मातरम् ॥ वन्दे मातरम्...


तुमि विद्या तुमि धर्मं, तुमि ह्रदि तुमि मर्मं

त्वं हि प्राणाः शरीरे

बाहुते तुमि मा शक्ति,

ह्रदये तुमि मा भक्ति,

तोमारे प्रतिमा गडि मंदिरे मंदिरे ॥ वन्दे मातरम्...


त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी

कमला कमलदल विहारिणी

वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्

नमामि कमलां अमलां अतुलाम्

सुजलां सुफलां मातरम् ॥ वन्दे मातरम्...


श्यामलां सरलां सुस्मितां भुषिताम्

धरणीं भरणीं मातरम् ॥ वन्दे मातरम्

_________________________________
(श्री रा.च.मिश्र जी के सुझाव से दुरुस्त किया गया)

Tuesday, September 05, 2006

चोर पर मोर!!





आपने बॉलीवुड को हॉलीवुड की नकल करते तो कई बार देखा होगा, पर आज ये देखिये, जब अपने यहाँ की नकल होती है तो क्या नया रंग उभर कर आता है.

हँसते हँसते पेट में बल पड़ जायेंगे, थोड़े ढिले-ढाले कपड़े पहन कर बैठियेगा, वरना बाद में कहेंगे कि 'बताया नहीं था' ... हाँ..!!

हवाई परदा!!



लीजिये, अब, हवा में ही तस्वीरें देखिये.

तकनीक कहाँ से कहाँ पहुँच रही है? कुछ खबर भी है??

Sunday, September 03, 2006

क्या ताजमहल वाकई हिन्दु मंदिर था?

यहाँ देखिए.
 
 
यहाँ कुछ तथाकथित सबूत, मय तस्वीरों के दिये हुये हैं.
 
आपकी क्या राय है?
 
 

Friday, September 01, 2006

कहाँ गये वो दोस्त..!!

कहाँ गये वो दोस्त, जो हरदम याद किया करते थे...,
जान - बुझकर न सही, मगर भूले से भी मेल किया करते थे...,
खुशी और गम में हमारा साथ दिया करते थे...,
लगता है सब खो गया है ... प्रोजेक्ट्स की डेड्लाइन्स में...,
न अपनी न हमारी, जाने किसकी यादों में...,
ज़िन्दगी को भुला चुके हैं, नौकरी की आड में...,
हरदम फ़ँसे रहते है, अपने पी.एम. के जाल में...,
कभी आओ मिलो हमसे, बैठकर बाते करो...,
दर्द - ए- दिल अपना कहो, हाले - ए - दिल हमारा सुनो...,
क्या रंजिश, क्या है शिकवा, क्या गिला और क्या खता... ;
हम भी जाने तुम भी जानो, आखिर क्या मंज़र क्या माजरा...,
बस भी करो अब...
कह भी दो, अपने दिल का हाल,
क्या करोगे खामोश रहकर
जो चली गई ये ज़िन्दगी, चला गया ये कारवां...;
जागो प्यारे...! अब बस भी करो,
सिर्फ़ काम नही, थोडा ज़िन्दगी को भी महसूस करो...,
खाओ, पिओ, हँसो, गाओ, झूमों, नाचो, मौज करो...,
हकीकत में ना भले पर कम - से - कम ...
.. भूल से ही सही हमें याद तो करो...
हम तो हरदम देंगे यही दुआ आपको..
याद न भी करो तो क्या, चलो, एन्जॉय ही करो।
 
---------------------------------------------------
(एक फ़ार्वर्डेड मेल का हिन्दी रुपांतरण)

Tuesday, August 29, 2006

गोलगट्टा लकड़पट्टा दे दनादन ले दनादन

ऐसा टेबल टेनिस देखा है कभी??




आईये देखिये विचित्र किंतु सत्य टेबिल टेनिस.

Friday, August 18, 2006

सॉफ़्टवेअर इंजीनियर आखिर सॉफ़्टवेअर इंजीनियर ही होते हैं

 
दो सॉफ़्टवेअर इंजीनियर शाम को थके हारे पब में बैठ के अपने अपने ग्लास से चुस्कियाँ लगाते हुये बात कर रहे थे.
 
पहला: अरे पता है? पिछले इतवार मेरे साथ क्या हुआ?
 
दूसरा: क्या हुआ?
 
पहला: कल मैं एक पटाखा लडकी से 'बार' में मिला..!! क्या मस्त थी यार......
 
दूसरा: अच्छा? फ़िर "क्या" हुआ??
 
पहला: ह्म्म्म..! मैं उसे अपने फ़्लैट में ले गया, हमने कुछ बातें की, कुछ ड्रिंक्स लिये..और...
 
दूसरा: ..और...? और क्या??
 
पहला: फ़िर अचानक वो बोली कि ..कि वो "कुछ" स्पेशल "फ़ील" करना चाहती है...
 
दूसरा: ...फ़िर..?? फ़िर तुमने क्या किया..??

पहला: ..फ़िर...फ़िर ..मैने उसे अपनी बाहों में उठाया और पलंग पर अपने नये लैपटॉप के बगल में लिटा दिया...
 
दूसरा: सच?? तुमने नया लैपटॉप ले लिया?? क्या कॉन्फ़िग्यूरेशन है??
 
पहला: १ जीबी रैम है...और...१०० जीबी हार्ड डिस्क है...और...ब्लूटूथ है...और...वायरलेस नेटवर्किंग है...और.................!!!!!

Tuesday, August 15, 2006

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें

उन धन्य पुण्यात्माओं की याद में...

जिन्होनें अपनी स्वतंत्रता के लिये शहादत दी.

हज़ारों नर-नारियों ने हँसते हँसते अपने प्राण न्योछावर कर दिये ,

ताकि तुम , जिन्हे न वे जानते थे और ना कभी जान पायेंगे,

स्वतंत्रतापूर्वक यह पढ सको,

स्वतंत्रता वह वस्तु है जिसे संसार की सारी संपत्ति भी खरीद नहीं सकती ,

वह पाई जा सकती है सिर्फ़ और सिर्फ़ वीरों के लहू से,

और आज, हम उन वीरों के लिये थोड़ी सी प्रार्थना कर सकते हैं जिन्होने हमारे लिये अपना बलिदान दिया ,

आज, १५ अगस्त २००६ को,

आओ, हम उन्हें याद करें और नमन करें जो हमारी खातिर शहीद हो गये.

॥ जय हिन्द ॥

॥ भारत माता की जय ॥

Wednesday, July 19, 2006

दिल फ़िर दिमाग पर भारी पड़ गया..!!

 
"मैडम" के सिंगापुर आने के पहले यह होता था कि हम अपना अधिकतर समय ऑफ़ीस में ही गुजार लिया करते थे और सिर्फ़ खाने और सोने के लिये बाहर निकला करते थे. हम जानते थे, आप ऐसा ही कुछ "गन्दा" सोचोगे, अरे खाने के लिये फ़ुडकोर्ट, और सोने के लिये "घर" (अब इसे ऑफ़ीस से बाहर निकलना ही तो कहेंगे ना?).
 
उसका फ़ायदा यह होता था कि थोड़ा बहुत ऑफ़ीस का काम भी कर लेते थे, अपने व्यक्तिगत काम (चैटिंग, मेल-शेल, नेट भ्रमण इत्यादि) भी हो जाते थे, और कुछ नहीं तो कम से कम ब्लाग लिखने-पढने का भरपूर समय मिल जाता था.
 
मगर अब तो हालत यह है कि ६ - ६:३० होते होते ही घर भागने की मन हो आता है.
 
अब आप लोग कहेंगे कि "अरे वाह! ये तो अच्छी बात है", हाँ बात तो अच्छी है ही. मगर उसके भी अपने नुकसान्स" हैं, और वो भी अपने ब्लागिंग जगत के लिये.
 
अरे भाई ऑफ़ीस से जल्दी जाने का मतलब यह कि ऑफ़ीस टाईम में ही यदा कदा कुछ "पढ" लिया तो ही बहुत, "लिखना" तो बडा भारी हो जाता है - अरे! ऑफ़ीस का काम भी तो करना पडता है ना? अब मै कोई "जीतू भैया" या "नाहर जी" थोडे ना हूँ कि जो मैं दो-चार दिन नज़र ना आउँ तो मुझे हजारों लाखों की तादाद में बुलावे आयें कि "भई, कहाँ छुप गये हो? आजकल ना ब्लाग ना परिचर्चा?"
मगर आप लोग भले ही कहो न कहो, मैं सब समझता हूँ - कि आप लोग मुझे कितना 'मिस' कर रहे होंगे, है ना?
 
तो फ़िर इस तरह जन्म लिया एक आवश्यकता ने-- घर पर एक अदद कम्प्यूटर की आवश्यकता ने! मगर पराये देश में "मितव्ययता" जो कि अपने आप ही सर चढ जाती है, पहले ही से पैर पसारे थी. तो फ़िर एक महासंग्राम हुआ, "आवश्यकता" और "मितव्ययता" का महासंग्राम.
 
मैडम पहले तो "मितव्ययता" की तरफ़ से मोर्चा संभाले हुये थीं, तब उनका तर्क ये था कि पहले ही ऑफ़ीस में अपना समय बरबाद कर देते हो, घर पर कम्प्यूटर आने से तो घर आकर भी मुये के सामने पडे रहोगे, और "उनकी" तरफ़ ध्यान ही नही दोगे. मगर बाद में उन्होने भी पाला बदल लिया. पाला बदलने के लिये यह तर्क पहले ही से उनके पास था कि - घर में कम्प्यूटर आयेगा तो वो दिनभर अपने दोनो घरों (भारत के) में आराम से बात कर पायेंगी - चैटिंग, मेल के जरिये (उन्हें तो यही लगा होगा कि "कम्प्यूटर" लेंगे तो जैसे इन्टरनेट तो फ़ोकट में ही मिल जायेगा), और फ़िर मुझे बहलाने को क्यह भी जोड़ दिया कि -आपके काम में कुछ मदद भी कर दिया करुंगी. (उन्हें कोई कैसे समझाए कि उनका हमारे काम के बीच नाक ना घुसाना ही हमारे लिये सबसे बड़ी मदद होगी उनकी तरफ़ से).
 
और फ़िर बहुत दिनों से दिली तमन्ना थी और रह रह कर मन में हुक उठ रही थी, (और तो और जमा किया हुआ पैसा भी उचक रहा था) कि लैपटॉप लेना है, लैपटॉप लेना है!
 
तो जनाब, दिल को कड़ा किया और पिछले ही शनिवार को -१५ जुलाई को - जब हमारी मम्मी के जन्मदिन की सालगिरह भी होती है - ले ही आये एक अदद लैपटॉप.
 
लैपटॉप ही क्यों? अरे...रईसी शौक़ है भई हमारे!!  डेस्कटॉप कहाँ लादे फ़िरेंगे भाई?
 
लेने गये थे तो कोई खास बजट तो नहीं बनाते थे, मगर सोचे थे कि २ हजार के अन्दर ही मिल जाये तो ठीक रहेगा. पर बजट के मुकाबले हमने configuration को थोडी ज्यादा तवज्जो दे रखी थी. ये जरूर सोच रखा था कि भई लैपटॉप में क्या क्या होना चाहिये. तो थोडे बहुत मॉडल देखने के बाद एक पसंद आ ही गया (main बात ये कि वो मैडम को भी पसंद आया). बजट के थोडा उपर था, मगर जब दो लोगों ने पसंद कर लिया तो बस, फ़िर फ़ायनल कर ही दिया और ले ही लिया.
 
लैपटॉप का जुगराफ़िया नीचे छाप दिये हैं, नजर मार लीजियेगा.
 
और हाँ, अब कृपया एकदम कल ही से मुझसे लाखों ब्लागपोस्ट या फ़िर परिचर्चा पर मेरी करोड़ों टिप्पणियों की उम्मीद मत लगा लेना, अरे, अभी सिर्फ़ कम्प्युटर आया है, घर पर अभी इंटरनैट का भी इंतजाम करना है. हाँ, घर से कुछ लिख कर ऑफ़ीस ला कर उसे तो पोस्ट कर ही सकता हूँ. मगर उसके लिये भी "मैडम" की सलाह (वो क्या है ना कि अनुमति लिखना अच्छा नहीं दिखता ना..) लेनी पडेगी.
यार, धीरे धीरे ब्लाग-शलाग का माहौल बनाना पडेगा ना. ;)
 
अभी तो टाईम हो गया है, चलते हैं. फ़िर मिलेंगे.
 
ACER Aspire 5562WXMI Notebook

Processor and Core Logic
-Intel® Centrino® Duo mobile technology
-Intel® Core™ Duo Processor T2300 (1.66GHz Processor)
-Intel® 945PM Express chipset 

System Memory
-1GB of DDR II RAM, upgradeable to 4GB using dual soDIMM modules
 
Display/Graphics
-14.1" WXGA Acer CrystalBrite™ TFT LCD, 1280 x 800 pixel resolution, 16.7 million colours, 16:10 viewing ratio, supporting simultaneous multi-window viewing on dual displays via Acer GridVista™
-ATI Mobility™ Radeon® X1400 with up to 512MB HyperMemory™
-MPEG-2/DVD hardware-assisted capability
-S-video/TV-out (NTSC/PAL) support
-Acer Arcade™ featuring Acer CinemaVision™ and Acer ClearVision™ technologies
 
Storage Subsystem
-100GB S-ATA hard disc drive
-5-in-1 card reader, supporting Secure Digital (SD), MultiMediaCard (MMC), Memory Stick® (MS), Memory Stick PRO™ (MS PRO), xD-Picture Card™ (xD)
 
Media Drive
-DVD-Super Multi double-layer
 
Dimensions & Weight
-334 (W) x 243 (D) x 28/35 (H) mm
-2.35kg
 
Power Subsystem
-ACPI 2.0b CPU power management standard: supports Standby and Hibernation power-saving modes
-53.3W 4800 mAh Li-ion battery pack (6-cell)
-3-hour battery life
-Acer QuicCharge™ technology: 80% charge in 1 hour; 2-hour rapid charge system-off; 2.5-hour charge-in-use
-3-pin 90W AC adapter
 
Keyboard and Pointing Device
-88-/89-key keyboard with inverted "T" cursor layout; 2.5 mm (minimum) key travel
-Built-in Touchpad with 4-way integrated scroll button
-12 function keys; 4 cursor keys; 2 Windows® keys; hotkey controls; embedded numeric keypad, international language support
-4 easy-launch buttons: Internet, e-mail, Acer Empowering Key and user-programmable button
-2 front-access buttons: WLAN and Bluetooth®
 
Audio
-Intel® High Definition audio support
-S/PDIF (Sony/Philips Digital Interface) support for digital speakers
-Audio system with 2 built-in speakers
-Sound Blaster Pro™ and MS-Sound compatible
-Built-in microphone
 
Communication Interface
-Acer Video Conference featuring Voice and Video over Internet Protocol (VVoIP) support via Acer OrbiCam
-Acer OrbiCam 1.3-megapixel CMOS camera featuring:
-- 225-degree ergonomic rotation
-- Acer VisageON technology
-- Acer PrimaLite technology
-Modem: 56K ITU V.92 with PTT approval; Wake-on-Ring ready
-LAN: gigabit Ethernet; Wake-on-LAN ready
-WLAN: Intel® PRO/Wireless 3945ABG network connection (dual-band tri-mode 802.11a/b/g) Wi-Fi CERTIFIED™ solution, supporting Acer SignalUp™ -wireless technology
-WPAN: Bluetooth® 2.0+EDR (Enhanced Data Rate)
 
I/O Interface
-3 x USB 2.0 ports
-1 x ExpressCard slot
-1 x PC Card slot (one Type II)
-1 x 5-in-1 card reader (SD/MMC/MS/MS Pro/xD)
-1 x IEEE 1394 port (4-pin)
-1 x Fast infrared (FIR) port
-1 x External display (VGA) port
-1 x S-video/TV-out (NTSC/PAL) port
-1 x Headphones/speaker/line-out jack with S/PDIF support
-1 x Microphone-in jack
-1 x Line-in jack
-1 x Ethernet (RJ-45) port
-1 x Modem (RJ-11) port
-1 x DC-in jack for AC adapter
 
OS Preload
-Genuine Microsoft® Windows® XP Home
 
Software
-Acer Empowering Technology (Acer eDataSecurity / eLock / ePerformance / eRecovery6 / eSettings / eNet / ePower / ePresentation Management)
-Acer GridVista™
-Acer Arcade™
-Acer Launch Manager
-Norton AntiVirus™ *
-Adobe® Acrobat® Reader®
-CyberLink® PowerProducer™
-NTI CD Maker™
 
Gift Items
-Acer Bluetooth® VoIP phone
-40 GB External USB disk drive
-1 GB Thumbdrive
-Carry Case
 
Warranty
-1-year limited local and international Traveller's (carry-in) warranty
 
Price: S$2298.00 (सिंगापुरिया डॉलर्स)
 
विशेष नोट:
अगर हम इस सौदे में ठगा गये हैं या हमने "महंगा" ले लिया है तो हमे ये बता कर "जलाने" की या "और ज्यादा" दु:खी करने की जरुरत कतई नहीं है.  हाँ अगर ये हमें सस्ते में मिला है, और सौदा अच्छा रहा, तो जरुर हमारी तारीफ़ में दो-चार (ज्यादा भी) कसीदे पढें, हमें अच्छा लगेगा.

Friday, July 14, 2006

अनुगूँज में चुटकुलों की गुँज

******* १ *******


Akshargram Anugunj
बन्ता सिंह (अपनी बीबी से): आज मैने पानी को बेवकुफ़ बना दिया.
सरदारनी: वो कैसे जी?
बन्ता सिंह: मैने नहाने के लिये पानी गरम किया, मगर मैं उससे नहाया ही नही और ठंडे पानी से ही नहा लिया.

******* २ *******

बंता सिंह जी ने लंदन के एक बार में प्रवेश किया और एक साथ ३ बीयर का आर्डर दिया. बीयर आने के बाद उन्होने तीनो में से बारी बारी एक एक घूंट ले ले कर बीयर खत्म की, फ़िर बैरे को बुलाया और ३ बीयर फ़िर से आर्डर की.
बैरा जो यह देख रहा था, बोला - साहब, अपने बार में काफ़ी स्टॉक है बीयर का, आप एक-एक कर के ही आर्डर करो, और बीयर का आनन्द लो.
बंता सिंह बोले - अरे नहीं, दरअसल, हम तीन भाई हैं, एक कनाडा में है, एक दुबई में है, और मैं यहाँ लंदन में हूँ. जब हम साथ रहते थे तो हम लोग बार में जाकर इकठ्ठे ही बीयर पिया करते थे. और जब हम अपनी अपनी नौकरी धंधे की वजह से बाहर निकले तो हमने आपस में यह वादा किया कि हम जहाँ भी
रहेंगे, इसी तरह अपने पुराने दिनों को याद करके बीयर पिया करेंगे.
बंता सिंह जी उस बार में नियमित रुप से आने लगे और उसी तरह,हर बार ३ बीयर आर्डर करते, १ १ करके तीनो खतम करते और चले जाते.
लगभग एक साल बाद, बंता सिंह जी बार में आये, मगर इस बार उन्होने सिर्फ़ २ ही बीयर आर्डर की. यह देख कर बार के सभी नियमित ग्राहक और बैरे चकित रह गये, और किसी अनैष्ट की आशंका करते हुये शांत हो गये. थोडी देर बाद एक बैरा आया और बोला - साहब, मैं आपके गम को और बढाना नहीं चाहता मगर,
हमारी पुरी सहानुभूति आपके साथ है.
बंता सिंह जी ने थोडा चकित होते हुये बैरे को घुरा फ़िर जोर से हँस पड़े - हो हो हो ...!! अरे नहीं जी. मेरे सभी भाई बिल्कुल सही सलामत हैं. बात बस इतनी सी है कि, कल ही से........मैने बीयर छोड़ दी है.
******* ३ *******

एक बार एक व्यक्ति बार में पहुँचा और एक लार्ज बीयर का आर्डर दिया. अभी बह पुरी भी खत्म नहीं कर पाया था कि उसे "प्राकृतिक बुलावा" आया. वह अपनी बीयर यूँही छोडकर नहीं जाना चाहता था, उसे डर था कि अगर उसने अपना ग्लास टेबल पर छोडा तो कोई और आके उसे पी जायेगा.
उसने एक तरकीब निकाली, अपने ग्लास के पास टेबल पर उसने एक नोट लिख कर छोडा - "मैंने इस बीयर में थूका हुआ है, इसे ना पियें"और बाथरूम की तरफ़ चला गया.
जब वापस आया तो बीयर तो उसे वैसे कि वैसे ही मिली, साथ ही एक नोट और मिला, जिसपर लिखा था - "मैंने भी थूक दिया है"
******* ४ *******

बन्तासिंह बार में बैठे हुये सबको झिला रहे थे कि उनकी बहुत पहुँच है, और वो सबको जानते हैं. सन्तासिंह ने सोचा चलो देखते हैं. उसने बन्तासिंह से १० रू की शर्त लगाई कि बार में अब जो भी पहला व्यक्ति आयेगा वो बन्तासिंह को नहीं पहचानता होगा.
तभी एक आदमी बार में घुसा और घुसते ही बन्तासिंह को देख कर आवाज दी - हे बन्तासिंह, कैसे हो?
शर्त हारने के बाद सन्तासिंह बोला कि चलो १०० रू की शर्त, जो भी सड़क पर पहला व्यक्ति मिलेगा वो तो तुम्हे नहीं जानता होगा.
दोनो सड़क पर निकले, एक आदमी पास से गुजरते हुये बोल गया - बन्तासिंह क्या हाल चाल?
खीज कर सन्तासिंह बोला कि शर्तिया अपने प्रधानमंत्री तो तुम्हे नहीं पहचानते होंगे. चलो १००० रू की शर्त.
दोनो प्रधानमंत्री निवास पहुँचे, वहाँ पहुँचते ही वहाँ तैनात सिपाही चिल्लाया - बन्तासिंह, तुम्हे पता है ना कि कोई भी इस तरह यहाँ नहीं आ सकता?
तभी प्रधानमंत्री का काफ़िला वहाँ से निकला, प्रधानमंत्री के सचिव ने चलती गाड़ी से हाथ हिला कर कहा - ओ बन्तासिंह, बडे दिनों बाद दिखे?
सन्तासिंह का दिमाग खराब. उसपर बन्तासिंह बोले, देखो मैं अभी जाके प्रधानमंत्री के साथ उपर उनकी बालकनी में आता हूँ.
बन्तासिंह कहे अनुसार प्रधानमंत्री के साथ उपर बाल्कनी में नजर आये. उन्होने नीचे सन्तासिंह को देख कर हाथ हिलाया और नीचे आये.
नीचे आकर देखा कि सन्तासिंह बेहोश पडे थे, सन्तासिंह को होश में लाकर पुछा कि क्यों मुझे प्रधानमंत्री के साथ देखकर बेहोश हो गये?
सन्तासिंह बोले - नहीं, जब तुम उपर थे तो कोई मेरे पीछे से आया और उपर इशारा कर के पुछा कि - ये बन्तासिंह बालकनी में किसके साथ खड़ा है?
******* ५ *******

एक 'बार' में एक बन्दा बड़ी खुबसूरत सी शर्ट पहन के आया. बारटेन्डर ने कहा - वाह! क्या कमीज़ है? कहाँ से ली?आदमी बोला - 'जार्जियो अरमानी'
थोड़ी देर बाद एक दूसरा आदमी अन्दर आया, उसकी पतलून देख कर बारटेन्डर ने कहा - वाह! क्या पतलून है? कहाँ से ली?दूसरा आदमी बोला - 'जार्जियो अरमानी'
थोड़ी देर बाद एक तीसरा आदमी अन्दर आया, उसके जूते देख कर बारटेन्डर ने पुछा- वाह! क्या जुते है? कहाँ से लिये?तीसरा आदमी बोला - 'जार्जियो अरमानी'
तभी एक आदमी नंग-धडंग बार में घुस गया, उसे देख कर बारटेन्डर चिल्लाया - ओ ओ, कहाँ घुसे आ रहे हो? कौन हो तुम?वो आदमी बोला - अरे मैं ही जार्जियो अरमानी हूँ.
******* ६ *******

एक बार एक पादरी 'बार' घुसा और जोर से चिल्लाया - "जो भी स्वर्ग जाना चाहता है, खड़ा हो जाय"
'बार' के सभी लोग खडे हो गये, बन्तासिंह को छोड कर.
पादरी उनके पास पहुँचा और बोला - बेटे, तुम मरने के बाद स्वर्ग नहीं जाना चाहते?
बन्तासिंह बोले - मरने के बाद?? मैं तो समझा आप अभी के अभी एक लॉट ले जा रहे हो..!
******* ७ *******

बन्तासिंह को सुबह सुबह उनकी मम्मी ने उठाया और कहा - "उठो बेटे, ७ बज गये हैं, तैयार हो जाओ, स्कूल जाना है".
बन्तासिंह बोले - "नहीं, मैं स्कूल नहीं जाउंगा".
माताजी बोलीं - "चलो मुझे कोई २ कारण बताओ स्कूल ना जाने के".
बन्तासिंह बोले - "सारे बच्चे मुझे चिढाते हैं, और सारी की सारी टीचर भी मुझसे नफ़रत करती हैं".
माताजी बोलीं - "चलो चलो, बहाने मत बनाओ, और जल्दी तैयार हो जाओ".
बन्तासिंह बोले - "चलो आप मुझे कोई २ कारण बताओ स्कूल जाने के".
माताजी बोलीं - "पहला तो ये कि तुम ५२ साल के हो. और दूसरा ये कि तुम स्कूल के प्रिंसीपल हो".
******* ८ *******

सन्ता और बन्ता रात को एक बैंक में चोरी की नीयत से घुसे. अंधेरे में उन्हे बैंक में दो बडे भारी थैले मिले. जिन्हे वे उठा लाये, और एक एक थैले आपस में बाँट कर अपने अपने घर चले गये.
चोरी के लगभग एक महीने बाद दोनो फ़िर मिले.
सन्ता - तुम्हारे थैले में क्या निकला?
बन्ता - करीब १० लाख.
सन्ता - वाह! क्या बात है? तुमने उनका क्या किया?
बन्ता - एक घर खरीद लिया और एक सेकण्ड हेण्ड कार भी मिल गई. तुम्हारे थैले में क्या निकला?
सन्ता - कुछ नहीं यार, बिल ही बिल थे.
बन्ता - फ़िर तुमने उनका क्या किया?
सन्ता - क्या करता, ढेर सारे हैं यार, धीरे धीरे करके भर (चुकता कर) रहा हूँ.
******* ९ *******

सन्ता घर पहुँचा तो देखा कि उसकी बीबी अपना सामान बाँध रही है.
सन्ता - अरे! कहाँ जा रही हो?
श्रीमति सन्ता - लास वेगास!
सन्ता - लास वेगास? क्यों?
श्रीमति सन्ता - मुझे एक आदमी मिला है जो मुझे $400 देगा उस काम के जो तुम फ़्री में करते हो.
सन्ता कुछ देर सोचने के बाद अपना भी सामान बाँधने लगा.
श्रीमति सन्ता - तुम कहाँ जा रहे हो?
सन्ता - लास वेगास!
श्रीमति सन्ता - लास वेगास? क्यों?
सन्ता - ये देखने के लिये कि सिर्फ़ $800 में तुम साल भर कैसे निकालती हो.
******* १० *******

लालू दाढी बनवाने के लिये नाई की दुकान में बैठा. नाई को लालू की दाढी बनाने में तकलीफ़ हो रही थी क्योंकि लालू के बाल वैसे ही छोटे छोटे थे.तो नाई ने अपने बक्से में से लकड़ी की एक छोटी सी गेंद निकाली और लालू को मुँह में रखने के लिये दी, जिससे दाढी अच्छे से बन सके.
दाढी बनने के बाद लालू ने पुछा - अगर यह गेंद मुँह से पेट में चली जाती तो क्या होता?
नाई बोला - क्या होता? तुम इसे अगले दिन सुबह (शौच के बाद) मुझे वापस कर देते, जैसे और लोगों ने दी थी.
******* ११ *******

एक बार एक आदमी कहीं जा रहा था कि उसे एक आवाज आई.
उसने देखा कि एक मेंढक उसे पुकार रहा था, मेंढक कह रहा था - अगर तुम मुझे 'किस' करोगे तो मैं एक खुबसूरत लड़की में बदल जाउंगा.
उस आदमी ने मुस्कुरा कर मेंढक को देखा और उसे उठा कर अपनी जेब में रख लिया.
थोड़ी देर बाद मेंढक फ़िर बोला - अगर तुम मुझे 'किस' करोगे तो मैं एक खुबसूरत अमीर लड़की में बदल जाउंगा और तुम मुझसे शादी कर सकते हो.
आदमी ने मेंढक को अपनी जेब से निकाला, उसे देखा और मुस्कुरा कर वापस अपनी जेब में रख लिया.
थोड़ी देर बाद मेंढक फ़िर बोला - अगर तुम मुझे 'किस' करोगे तो मैं एक खुबसूरत लड़की में बदल जाउंगा और तुम मुझसे शादी कर सकते हो, और मेरी सारी दौलत भी तुम ले सकते हो.
आदमी ने मेंढक को फ़िर अपनी जेब से निकाला, उसे देखा और मुस्कुरा कर वापस अपनी रखने लगा.
मेंढक चिल्लया - अरे, कैसे मर्द हो तुम? मैं तुमसे कह रहा हूँ कि अगर तुम मुझे 'किस' करोगे तो मैं एक खुबसूरत लड़की में बदल जाउंगा और तुम मुझसे शादी कर सकते हो, और फ़िर मेरी सारी दौलत भी तुम ले सकते हो.तुम मुझे 'किस' क्यों नहीं करते?
आदमी बोला - क्योंकि मैं एक सॉफ़्टवेअर इंजीनियर हूँ, प्रेमिका और बीबी के लिये मेरे पास समय नहीं है, मगर एक 'बोलने वाला' मेंढक वाकई 'कूल' है.
**************

Monday, June 19, 2006

९ मई २००६ से १६ जून २००६

९ मई २००६ से १६ जून २००६ तक की कहानी
मैं: आशिक की है बारात जरा झूम के निकलो....
वह: ले के पहला पहला प्यार...भर के आँखों में खुमार..जादूनगरी से...
मैं: ले जायेंगे...ले जायेंगे...दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे...
वह: तुझे जीवन की डोर से बांध लिया है...
मै: कभी कभी मेरे दिल में..खयाल आता है...
वह: मांग के साथ तुम्हारा...मैने...मांग लिया संसार...
मैं: ये हवा ये नदी का किनारा...चाँद तारों का रंगीन इशारा...
वह: आधा है चंद्रमा रात आधी... रह ना जाये तेरी मेरी बात आधी ...
मैं: ऐ जाते हुये लम्हों... जरा ठहरो, जरा ठहरो..मैं भी तो चलता हूँ...
वह: परदेस जाके परदेसिया....भूल ना जाना पिया...
मैं: तेरी जुल्फ़ों से जुदाई तो नहीं मांगी थी...कैद मांगी थी..रिहाई तो नहीं मांगी थी..
वह: मेरे पिया गये रंगून, किया है वहाँ से टेलीफ़ून...
मैं: याद किया दिल ने कहाँ तो तुम, झुमती बहारें कहाँ हो तुम...
वह: आजा रे...अब मेरा दिल पुकारा...रो रो के गम भी हारा...
मैं: तू कहाँ...ये बता...इस नशीली रात में...माने ना मेरा दिल दिवाना..हो...
वह: ओ माझी...ओ माझी..ओ...मेरे साजन हैं उस पार, मैं इस पार...अबकी बार...ले चल पार...
मैं: आयेगी वो आयेगी...दौड़ी चली आयेगी...सुन के मेरी.. आवाज़ आयेगी...
वह: पालकी पे होके सवार चली रे...मैं तो अपने साजन के पास चली रे...
मैं: आने वाली है...मिलन की घड़ी...
वह: कैसे कटे दिन...कैसे कटी रातें..पुछो ना साजना...जुदाई की बातें...
मैं: बहारों फ़ूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है...
वह: वो चाँद खिला, ये तारे हँसे...ये रात अजब मतवाली है...
मै: आके तेरी बाहों में...हर शाम लगे सिंदूरी...
वह: झिलमिल सितारों का आँगन होगा, रिमझिम बरसता सावन होगा...
मैं: तू मेरे सामने...मैं तेरे सामने...तुझको देखूँ के प्यार करूँ...
वह: ये रात भीगी...ये मस्त फ़िजायें...सोने भी नहीं देता मौसम का ये नजारा...
हम: जनमों के साथी, दीया और बाती,..हम साथ-साथ हैं..

Friday, June 16, 2006

आरक्षण: एक और उदाहरण (व्यंग्य)

चिंटू खरगोश और बंटू कछुआ इंजीनियरींग प्रवेश की परीक्षा में बैठे.

जब परिणाम आया तो सबने देखा कि चिंटू को ८३% अंक मिले हैं जबकि बंटू को मात्र ६१%.

मगर फ़िर भी इंजीनियरींग कॉलेज में बंटू कछुए को ही दाखिला मिलता है.

क्या आप जानते हैं क्यों??

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सोचिये सोचिये!!

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अरे खेल कोटे में यार.
आप लोग भी ना! जाने कहाँ से जात-पात वगैरह वगैरह सोचने लगते हैं.

भूल गये क्या? जब बचपन में, खरगोश और कछुए की दौड़ हुई थी तो उस दौड़ में कौन जीता था?
कछुआ ही तो जीता था ना? फ़िर??

Thursday, June 15, 2006

किताबें और मेरा बचपन

परिचर्चा में, पुस्तकों से प्यार, टापिक पर अपना पोस्ट करते समय मैं अपने बचपन में चला गया था, जब मैं अक्सर कॉमिक्सों से घिरा रहा करता था.
 
मुझमें पुस्तकों, खासकर हिन्दी की कॉमिक्स, या चाहे कोई और पत्रिका, पढने का शौक या चस्का बचपन ही से लग गया था.
 
गर्मी की छुट्टियों में चाहे किताबें खरीदना हो या निकटतम लायब्रेरी से लाना हो, मैं हमेशा तैय्यार रहता था.
 
वैसे, इस शौक के पीछे मेरे पापा का भी बड़ा हाथ है, कारण कि उन्हे भी पढने का काफ़ी शौक है, और वो हमें (याने मेरे बडे़ भाई को और मुझे) पढने में काफ़ी प्रोत्साहन देते थे.
 
और एक कारण है मेरे इस शौक के परवान चढने का - वह यह कि - पढने लायक सामग्री की उपलब्धता - वह भी प्रचुरता में.
 
पढने की हमारी कहानी तीन शहरों में फ़ैली हुई है. यहाँ एक बात जाहिर कर दूँ - पढने में आप लोग "पढाई" को शामिल ना करें तो ही अच्छा होगा.
हाँ तो, पहले हम (हमारा परिवार) भोपाल में रहा करते थे. दो और शहर होते थे, जहाँ हर गर्मी की छुट्टियों में जाना होता था: इन्दौर और उज्जैन.
 
तो ऐसा था कि भोपाल में हमारे एक परीचित परिवार था जिनकी खुद की एक अदद लायब्रेरी थी. ढेर सारी कॉमिक्सें, पत्रिकायें इत्यादि. मेरी और मेरे भाई कि अक्सर यहा कोशिश होती थी कि हम यदा कदा उन्ही के यहाँ जायें. जैसे तैसे कोशिश किया करते थे कि मम्मी पापा को वहाँ जाने के लिये पटाया जाये. और वहाँ पहुँचते ही दीन-दुनिया से बेखबर हो, बस बैठ जाते थे. एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी....उफ़्फ़. लगता था कि आयें हैं तो सारी की सारी ही पढ ली जाय. क्या पता "कल हो ना हो". हाँ वहाँ उपन्यास भी हुआ करते थे, अरे वही सुरेन्द्र मोहन पाठक वगैरह के, मगर चुँकि हम उस वक्त छोटों की श्रेणी में आते थे (यह बात होगी जब हम पढना समझने से ८वीं कक्षा तक की उम्र में थे) सो उन तक हमारी पहुँच नहीं थी. (उनके यहाँ एक बिल्ली भी थी, और उसके छोटे छोटे पिल्लू भी थे - बिल्कुल रुई के गोलों की मानिंद).
और फ़िर एक सरकारी लायब्रेरी थी, जिसके की पापा सदस्य थे. हजारों उपन्यास (साहित्यिक उपन्यास कहना उचित होगा). मुझे तो याद भी नहीं कि मैने किन किन साहित्यकारों के उपन्यास चाट डाले होंगे. आत्मकथाएं, कविताएं, शेरो-शायरियाँ इत्यादि को छोड़ कर मैने ऐतिहासिक उपन्यास भी खुब पढे और नाटक, तथा अन्य उपन्यास भी.
 
आते हैं इन्दौर में - जहाँ हमारी दादी रहती थी, वहीं पास ही में था एक सरकारी पुस्तकालय (शायद नेहरू बाल पुस्तकालय, या पता नहीं क्या नाम था) - मालवा मिल वाले क्षेत्र में था चन्द्रगुप्त टॉकिज के सामने. वहाँ ऐसा होता था कि - वहीं बैठ कर पढना हो तो मुफ़्त में और अगर घर लानी तो कोई पुस्तक तो कुछ शायद २० - ३० पैसे लगते होंगे. रोज सुबह नहा-धो के लगभग १०:००-१०:३० तक वहाँ पहुँच जाते थे. १-२ घंटे तो वहीं बैठ कर पढते रहते. और फ़िर १ - २ किताबें ले कर भी आते. भई, दोपहर को भी तो पढने के लिये कुछ चाहिये कि नहीं.
मगर वह लायब्रेरी थी तो सरकारी ही ना. नई तरह कि किताबें ही नहीं आती थी. तो फ़िर एक दूसरी लायब्रेरी पकड़ी गई (शायद "अरोरा लायब्रेरी") यह भी वहीं थी. याने मालवा मिल के चौराहे के पास. वहाँ क्या "कलेक्शन" था...बाप रे! वहाँ से नया प्रयोग किया गया. "डायजेस्ट" और "बाल पाकेट बुक्स" पढने का. क्यों? अरे कॉमिक्स तो फ़टाक से खत्म हो जाया करती थी ना.
 
 
और उज्जैन में - वाह, वहाँ एक और परीचित थे, जिनकी खुद की लायब्रेरी थी. और एक दुकान भी. तो कॉमिक्स उठाओ, और दुकान पर बैठ जाओ. मुझे बडा अच्छा लगता था दुकान पर बैठना. लोगबाग कुछ खरीदने आते थे तो सामान निकालो, तौलो...हम्म्म.. ना भूलने लायक अनुभव होत था. तो एक समय ऐसा आया कि हमने उनके यहाँ का सारा बाल साहित्य (अरे कॉमिक्सें इत्यादि) पढ पढ कर खत्म कर दिये. फ़िर बाल पाकेट बुक्स. और फ़िर कब हम धीरे से वो मोटे वाले उपन्यासों पर कुद गये पता ही नही चला. मगर धुन ऐसी होती थी कि एक बार जो उपन्यास उठाया, तो पुरा किये बगैर नहाना-धोना, खाना-पीना सब बंद. याने कि अगर हमारे हाथ में कोई नावेल है तो हम किसी काम के नही रहते थे.
 
शायद खुब ज्यादा कॉमिक्स पढने का ही कारण रहा होगा कि मैं हिन्दी तो फ़र्राटे से पढने लगा था. कॉमिक्सें तो ५-१० मि० मे खत्म. मेरे कुछ दोस्त आश्चर्य करते थे कि मैं इतनी जल्दी कैसे पढ पाता हूँ. मेरा पढने का तरीका ही कुछ ऐसा होता था जिससे उनको शक होता था. कॉमिक्स तो ऐसे पढता था कि उनलोगों को लगता था कि मैं बस नजर घुमा रहा हूँ पन्नों पर. कई बार बड़ा मजा आता था जब वो मुझे चैलेंज करते थे कि -तुमने पढी नही- फ़िर मैं जो पढा था उसे रीपीट कर के बताता था....!
 
और फ़िर शायद यही कारण होगा कि मैने उपन्यास पढना शुरू किये. कम से कम कुछ घंटे तो चलता था. :)
 
और फ़िर बाकी रही सही कसर पापा का संग्रह पुरा कर देता था.
 
कालेज खत्म होने तक यही हाल रहा, जब तक पुस्तकें पढने का समय भी निकाल लेता था और पुस्तकों की उपल्ब्धता भी होती थी. अब उतनी शिद्दत से तो नहीं, पर यदा कदा, जब कही कोई अच्छी किताब मिल जाती है तो छोडता नहीं हूँ.
 
अब जब भी "कभी घर जाना होता है", पापा के संग्रह में कोई ना कोई नई किताब मिल ही जाती है.
देखें, अब कब जाना होता है.....
 
बचपन की और यादें फ़िर कभी ..!!
 

Wednesday, June 07, 2006

फ़िर लीजिये, पुनः हाजिर हुये, हाइकू लिये!!

फ़िर पिछली कहानी दोहराई गई है.
बात दरअसल ये है कि 'हाइकू' होती ही इतनी छोटी है कि एक लिखने से मन नही भरता, और ज्यादा लिख दो तो यहाँ छापने का मन करने लगता है.
तो इस बार भी वही हुआ, लिखी तो वहाँ (परिचर्चा) पर थी, मगर फ़िर उठा कर यहाँ धर दी गई है.
 
बताईये तो, कैसी बन पड़ी है!?!
 
हूँ परेशान,
ज़िंदगी की ये राह,
नहीं आसान!!
 
ना कोई पास,
किस की करूँ आस,
दिल उदास!!
 
घर से दूर,
हाँ, हूँ मैं मजबूर,
क्या है कसूर?
 
ऐ मेरे नबी*,
अब तू बता, क्या है
यही जिंदगी?
 
है अजनबी,
लगते अब सभी,
थे पास कभी!!
 
झुमे आँगन,
खिले उठे ये मन,
करो जतन!!
 
हे भगवान!!
सेव मी ओ' जीसस!!
खुदा रहम!!
 
_____________________
*नबी= ईश्वरदूत, भविष्यद्वक्ता
 
 

Monday, June 05, 2006

दिल का हाल..कह तो दिया अब.. दिल को खोल..!!

परिचर्चा में बड़ी चर्चा थी "हाइकू" की.
हम भी जा पहुँचे और बड़े-बुढों को लिखता देख हमने भी हाथ मारा,
और सबसे पहली बनाई ये वाली:-

क्या होती है ये?
इसे कविता कहें?
है गणित ये!!



आज जब चुटकुलेबाजी से फ़ुर्सत मिली तो से घुमते घामते फ़िर हाइकू सेक्शन तक आ पहुँचे.
सोचा आज एक अदद और लिख दी जाय.

तो जनाब, बनाने बैठे.
अब जब बनते बनते उम्मीद से काफ़ी बड़ी बन गई तो मन में लालच आ गया.
सोचा परिचर्चा तक ही क्यों इसे सीमित रखें, ऐसे "कलात्मक पीस" को तो अपने चिठ्ठे पर ही जगह मिलनी चाहिये.

तो साहेबान, पेश-ए-खिदमत है,
हाल-ए-हाइकू:

सोचा बहुत,
लिखूँ मैं कुछ और,
है नया दौर!

'आरक्षण' है
'महाजन' भी तो है
जिंदगी बोर...!

मन में व्यथा
और है व्याकुलता
बाहर शोर..!!

काम करते,
हम व्यस्त दिखते,
मन में चोर..!!

विरह में हैं,
इंतजार में रहें,
कितना और..!!

सपना मेरा,
खुशियों का बसेरा,
सांझ या भोर..!!

समय हुआ,
हम चलते बने,
घर की ओर..!!

कामना भी है,
मन करता अब,
जाऐं इन्दौर..!!

बहुत हुआ,
अब मत कहना-
कि वंस मोर..!!

नाम है मेरा,
विजय वडनेरे,
ना कोई और..!!

Thursday, June 01, 2006

कुछ खास नहीं...

आज कुछ खास नहीं है लिखने के लिये, मगर काफ़ी दिनो से कुछ लिखा नही है तो कुछ अजीब सा लग रहा था.
 
हाँ, ये बात और है कि हम "परिचर्चा" पर बराबर नज़र रखे हुये हैं, और बकायदा, ऑफ़िस में बॉस की नज़र बचा कर परिचर्चा के रनवे पर अपनी (खटारा) गाड़ी दौड़ाते रहते हैं.
 
अरे मिंया, आप इसे कोई आसान काम समझते है क्या? अरे ज़नाब बॉस को इस बात का यकीं दिलाते हुये कि बन्दा जोर-शोर से उनके दिये काम को निभा रहा है, फ़ोरम पर सब लोगों की चर्चा पर नज़र रखना और बकायदा अपनी (जबरजस्ती की) राय देते चलना.
 
और राय भी कैसी, कभी शेर-ओ-शायरी करो, तो कभी कविताएँ लिखो, अब एक नया शगुफ़ा चल पड़ा है - हाइकु - का. तौबा तौबा, बड़ा मुश्किल काम है यार. बची खुची कसर वो "चुटकुले" वाले फ़ोरम ने निकाल दी.
 
कुछ कोड लिखने या कुछ अपने प्रोजेक्ट के बारे में सोचने बैठो तो दिमाग में सारा का सारा हिन्दी साहित्य घुमता रहता है.
 
यही सोचते रह जाते हैं कि -
 
- पंकज भाई ने क्या कहा होगा?
- लवन बागला भाई ने क्या जवाब दिया होगा?
- नाहर जी क्या बोले?
- जीतू भीया के श्रीमुख से क्या वचन निकले होंगे...
इत्यादि इत्यादि.
 
वैसे हमने इस मुश्किल से बाहर निकलने का एक हल सोचा है - हमने जीतू भैय्या को एक "सजेशन" टिकाया कि हमें कुवैत में उनकी ही कंपनी में एक (बहुत) बड़े से पद पर नौकरी दे दी जाय.
 
अब बस, ऑफ़िस के काम धाम तो जीतू भैय्या कर लेंगे (या किसी शेख या मलबारी से करवा लेंगे - ये उनका टेंशन), और अपन?? अपन तो दिन भर बिन्दास कभी ब्लाग, तो कभी टिप्पणी, तो बाकी समय परियों की चर्चा आई मीन - परिचर्चा, करते बैठेंगे.
 
कैसा है सुझाव??
अपने अमूल्य सुझाव देकर मेरे सुझाव को "और" परिष्कृत करने का कष्ट करें.

Friday, May 26, 2006

आरक्षण: शायद ऐसा तो नहीं होगा...??

आरक्षण के बारे में अब मैं और क्या कहूँ? बडे़ बुढे, सभी लोग कुछ ना कुछ कहे जा रहे हैं.

मुझे आज ही एक ईमेल में यह फ़ार्वर्ड आया, सोच के ही मन में जाने कैसा कैसा लग रहा था, सोचा आप के साथ भी
अपनी सोच बाँट लूँ.

आखिर मैं अकेला क्यों इसके पीछे परेशान रहूँ??





क्या हमारी अगली पीढी ऐसा ही कुछ देखने वाली है??

Tuesday, May 23, 2006

गिफ़्ट के लिये थैंक्यू!!

गप्पू भाई ने जो हमारी शादी का नगाडा बजाया है, उसके लिये पहले तो हम उनको धन्यवाद देते हैं.
 
माना कि- आज की तारीख में उनकी ये बात हम पर फ़िट नहीं बैठती,
मगर जो बडे बुढों की टिप्पणियाँ आई है उसे देखकर तो यही लगता है कि इससे फ़िट और कुछ हो भी नहीं सकता.

वैसे,
जो आपने बताया है वो तो "गोडाऊन" में रखा होता है, हम तो "शोरूम" देखकर ही खुश हो जाते हैं.
बाद की तो बाद में कहेंगे, आज आपसे हम अपने आज-के हाल बताते हैं:-


डालर का मोह ले आया हमें अपने वतन से दूर,
टप्पे खाते खाते लो पहूँच गये आखिर सिंगापूर,
 
आखिर सिंगापूर, हमें तो नजर ये आया,
यहाँ से तो अच्छे बंगलौर में ही थे भाया,
 
वहाँ खाने का इंतजाम तो था ही पक्का,
हर चीज में नहीं मिलाते कोई "मक्का",

मिल जाता था वहाँ दाल चावल राजमा रोटी,
यहाँ तो खाओ मुर्गा मच्छी मेंढक और बोटी,
 
यहाँ का खाना खा के भी जाने क्या हो फ़ायदा,
रोटी पराठा नूडल्स, मैदे से ही बनाने का कायदा,
 
रोज रोज होटल में खाने पर हो पेट और पैसे की बरबादी,
इन्ही सब झंझटों को टालने के लिये कर बैठे हम शादी,
 
कर बैठे हम शादी, मगर अब भी छडे छडे हैं,
बीबी है भारत में और खुद अकेले यहाँ पडे हैं,
 
वो वहाँ हम यहाँ मत पुछो अब कैसा है ये मन,
उनको तो अपने पास लाने का अब पूरा हैं जतन,

हाथ जोडे, सर फ़ोडा और दाँतो को पिसा,
पर अभी नही बना मोहतरमा का वीसा,
 
माना कि अपनी शादी तो हुई है नई नई,
पर मैडम को आते आते गुजर जाएगी मई,
 
जून जुलाई अगस्त बारिश में झुमेंगे,
बीबी के साथ ही पूरा सिंगापुर घुमेंगे,
 
अभी तो कर रहा हूँ कंजूसी औ' बचा रहा हूँ पैसा,
तभी तो एन्जॉय कर पाउंगा बर्डपार्क और सैण्टोसा,
 
आगे का तो पता नहीं हाल अभी का सुना रहा हूँ,
शादी होने के बाद भी साथ रहने को तडप रहा हूँ,
 
रोज सुबह तो आज भी दफ़्तर देर से जाता हूँ,
बाद की छोडो, अभी ही बॉस की डाँट खाता हूँ,
 
करनी माना मेरी ही है सो मैं उसे भर लुंगा,
बीबी रहेगी साथ में, उसे, जी भर तो देखुंगा,
 
काश मालिक मुझमे ये डालर का मोह ना जगाता,
कुछ समय ही सही, बीबी के साथ तो रह पाता,
 
अगर अपनी मैडम को मैं अपने साथ ही यहाँ ले आता,
कितना ही अच्छा होता मैं फ़ोर्स्ड बैचलर तो ना कहलाता.


माना कि ये आडी तेढी तुकबन्दी है,
मगर क्या करें आजकल तो दिल ही तेढा हो रहा है,
सीधी बात कहाँ से निकलेगी....?

याने कि- जस का तस धर रखा है!!

Monday, May 15, 2006

फ़ोर्स्ड बैचलर!!

यह वाक्य पहले कई बार सुना था, मगर आज यह खुद महसूस कर रहा हूँ.
 
सिंगापुर से वापस भारत जाने से पहले एक पोस्ट लिखा था. सोचा था कि भारत जा कर विस्तार से घोषणा करूंगा.
 
मगर, पता नहीं था कि अपना कम्प्यूटर भी चालु करने से महरूम कर दिया जाउंगा. इसलिये कुछ नहीं लिख पाया.
 
अब बात को और झुलाते नहीं हैं, और (सगर्व) यह घोषणा करते हैं कि अब हम शादीशुदा लोगों की बिरदरी में पदार्पण कर चुके हैं.
 
हालिया ९ मई २००६ को हम इन्दौर शहर की ही कु० प्रणोती के साथ दांपत्य जीवन की डोर में बंध चुके हैं.
 
हालांकि बहुत कुछ लिखना चाहते थे, मगर शादी की भागा दौडी के बीच कुछ सुझा ही नहीं,
और ना ही हम ब्लाग बिरादरी को न्योता दे पाये. आशा है इसके लिये बंधुगण हमें क्षमा करेंगे.
 
शायद आप सभी बंधुओं की और आपकी शुभकामनाओं की अनुपस्थिति का ही परिणाम है कि आज हम "फ़ोर्स्ड बैचलर" बन कर वापस सिंगापुर आ गये हैं.
 
यानि कि अभी हमारी मैडम, क्या कहा? कौन? अरे यार याने हमारी धर्मपत्नी जी, और नाम? उपर लिखा है ना नाम, फ़िलहाल तो हमारे परिवार के साथ हमारे गृहनगर में ही है, और थोडे समय बाद याने कि २०-२५ दिनों बाद सिंगापुर में हमारे साथ आयेंगी.
 
हम तो नहीं चाहते थे आना, पर क्या करें? नौकरी है तो चाकरी बजानी पडती है.
 
यहाँ से गये कैसे,
विवाह कैसा हुआ, क्या क्या गडबडियां हुई,
आये कैसे,
आते जाते समय रास्ते में क्या हुआ,
जरुर लिखुंगा और विस्तारपूर्वक लिखुंगा.
 
कृपया थोडा समय दें.
 
फ़िलहाल इतना ही, बाकी बाद में.

Wednesday, May 03, 2006

आज सिंगापुर से आखिरी पोस्ट

 
अरे नहीं भाई लोगों,
घबराओ नहीं, इतनी जल्दी सिंगापुर छोडकर नहीं जा रहा हूँ.
 
(और ज्यादा खुश होने की भी जरुरत नहीं है)
 
मैं आज भारत के लिये कूच कर रहा हूँ, किसलिये कर रहा हूँ ये वहाँ पहुँच कर बताउँगा. ;)
 
तब तक के लिये - खुदा हाफ़िज.
 
वैसे तो खुदा मेरा ही हाफ़िज रहे तो अच्छा है!
 
क्यों?
 
क्योंकि जीवन सागर के मझधार में पहुँचने वाला हूँ!
और एक कैटेगरी को तज कर दूसरी कैटेगरी में प्रवेश करने वाला हूँ.
 
...इशारों को अगर समझो, राज को राज रहने दो..;)
 
अगली पोस्ट में "मैडम" के बारे में भी कुछ रहेगा.
 
नमस्ते.

Wednesday, April 26, 2006

Jewel in the palace - चांगजिंग

मैं जब अपनी नौकरी के चलते सिंगापुर पहुँचा था तो पहले दो हफ़्ते तक तो कंपनी के गेस्ट हाउस में रुका था.
शाम को ऑफ़िस से आने के बाद और खाना खाने के वक्त तक रात हो जाती थी और फ़िर कुछ और काम भी नही रह जाता था, तो बस, टी.वी. के सामने बैठ जाया करते थे.
 
दूसरे हफ़्ते से ही एक नया चयनीज टी.वी. श्रंखला शुरु हुई, नाम था - "ता चान्गजिन्ग".
वो तो बाद में पता चला कि हम गलत सुनते थे. नई जगह, नई भाषा, अब हमें तो पहले यही सुनाई देता था यार. और तो और बाद में पता चला कि वो "चायनीज" भी नही है, कोरियन है.
 
बकौल जय (अमिताभ बच्चन इन शोले - "मुझे तो सब पुलिसवालों की सुरतें एक जैसी नजर आती है") -  "मुझे तो सब ना समझ में आने वाली भाषायें चायनीज सुनाई देती है"
 
हाँ, तो, जब श्रंखला चायनीज थी (याने समझते थे) तो इस उम्मीद से बैठे देखते रहते थे कि अब तो "ही - हा - ईय्या" याने कि चायनीज ढिशुम ढिशुम शुरु होगा. और मुझे शुरु से वैसी मार पीट देखना पसन्द है. उसपर चायनीज मारपीट जिसमें लोगबाग उड उड कर मारते हैं, वाह! क्या बात है.
 
हम लोग तो दोस्तों के बीच इन चायनीज श्रंखलाओं को - चीनी अलिफ़ लैला, या चीनी बिक्रम बेताल, या फ़िर चीनी चन्द्रकांता कह कर मजे ले ले कर देखते हैं. या फ़िर जो आजकल की तथाकथित फ़ैमिली श्रंखलाएं होती हैं उन्हे, "लोकल कहानी घर घर की" जैसे नाम दे कर झेल लिया करते हैं. "भाषा" बीच में से हटा दी जाय तो अपने भारतीय और विदेशी टी.वी. कार्यक्रम सब एक बराबर हो जाते हैं.
 
तो जिस श्रंखला की बात हम यहाँ कर रहे हैं उसका असली नाम है: Daejanggeum (Dae Chang jing), और उसका अंग्रेजी जालस्थल है यहाँ और यदि किसी को कोरियन आती हो तो यहाँ  देखिये.
 
Dae Jang geum का मतलब है - Great Jang geum, यहाँ Jang geum एक पात्र का नाम है, और जैसा कि मुझे पता चला है, यह एक ऐतिहासिक और वास्तविक पात्र पर आधारित है.
 
ये एक कोरियन ऐतिहासिक गाथा  है. एक ऐसे पात्र की कथा जो स्त्री होते हुये भी एक साम्राज्य, जोसियॉन राजवंश, के सम्राट की मुख्य और व्यक्तिगत चिकित्सक बनती है. वह भी तब जबकि स्त्रियों के लिये उस समय रसोई से बेहतर और कोई जगह नहीं थी खुद को व्यस्त रखने के लिये और खुद को साबित करने के लिये. बचपन में ही अनाथ होने के बावजूद महल के रसोईघर में सहायक रसोईया बनने से लेकर सम्राट की व्यक्तिगत चिकित्सक बनने तक की राह आसान ना थी, यह कहना जरूरी नहीं है.
 
इसमें कथा में, राजवंश के लिये जो रसोई बनती है,  वहाँ क्या क्या होता है उसका वर्णन है, जिसमें पाककला प्रमुख रुप से उकेरी गई है. तरह तरह के भोज्य पदार्थ, उनके चिकित्सकीय महत्व को कई बार उल्लेखित किया गया है. अलग अलग स्तर के रसोईये होते है, उनके सहायक होते है, विशेषज्ञ होते है. फ़िर जैसा कि होता है, "राजनीति" हर कहीं व्याप्त है. हर कोई एक दूसरे की टांग खींचने के लिये तत्पर. उच्च पद के लिये दौड. जायज नाजायज तरीकों का इस्तेमाल. अपने पद का उचित-अनुचित उपयोग-दुरुपयोग, प्रेम त्रिकोण...!! याने कि भरपेट मसाला!! मगर कहीं भी अति नहीं लगता. सारा तारतम्य एकदम फ़िट है.  कथा प्रवाह कहीं भी धीमा नहीं पडता, और मन लगा रहता है.
 
बकौल वीरू (धर्मेन्द्र)- इस कहानी में इमोशन है, ड्रामा है और एक्शन (थोडा थोडा) भी है. और हाँ,  हास्य ना हो तो क्या मजा, वह भी है.
 
अब आप कहेंगे कि बेटा विजय, तुम्हें तो ना चायनीज आती है और ना ही कोरियन फ़िर क्या बस फ़ोटू देखते हो? अरे यार, अंग्रेजी सबटाईटल भी तो आते हैं. अब वो तो हम हैं जो, देखने और पढने का काम एक साथ, और उसी रफ़्तार से कर लेते हैं. एक आँख देखती है और दूसरी से डायलाग्स पढते चलते हैं.
 
अब तक की कहानी में मुख्य पात्र (चांगजिंग) की परामर्शदाता (प्रशिक्षक) काफ़ी जद्दोजहद के बाद मुख्य रसोईघर की मुख्य रसोईया (Top Lady) बनी है. याने कि अभी तो दिल्ली काफ़ी दूर है.
 
यह पहले कोरियन भाषा में बना है, फ़िर कई भाषाओं में डब हो कर आजकल चायनीज भाषा में सिंगापुर में प्रसारित हो रहा है.
 
शुरुआत में तो बस समय व्यतीत करने की गरज से देखते थे, पर अब लगता है कि इसकी आदत पड़ गई है. इसकी बदौलत फ़टाफ़ट रात का खाना खा कर ठीक १० बजे टी.वी. के सामने जम कर बैठ जाते है और १ घंटे तक वहीं जमे रहते हैं. यह सीरियल है भी काफ़ी लोकप्रिय. इसकी लोकप्रियता का अंदाज इस ब्लाग से लगाईये. इस पूरे सिरीयल की डीवीडी भी विक्रय हेतु उपल्ब्ध है.
 
निर्देशन और अभिनय की दृष्टि से भी काफ़ी दमदार प्रस्तुति है, और मुख्य पात्र "ली यँग ऐ (Lee Young Ae)" बहुत खुबसूरत है कम से कम मुझे तो लगती है.
 
अभी कल ही मैने इसका शीर्षक संगीत रिकार्ड कर लिया है जो मुझे काफ़ी पसंद है. हालांकि एक भी शब्द पल्ले नहीं पडता, मगर, कहते हैं ना, संगीत की कोई भाषा नहीं होती, यह बात सौ टक्के चरितार्थ होती है. काफ़ी कर्णप्रिय है इसका  शीर्षक संगीत ( सुनिये यहाँ से).
 
हालाँकि अब तो अपने खुद के (किराये के) घर में आ चुके हैं और भला हो मकान मालिक का कि जो घर में एक अदद टी.वी. रख छोडा है, याने कि "चांगजिंग" देखना बदस्तुर जारी है.

Monday, April 24, 2006

आरक्षण, एक नई सोच!

(एक फ़ार्वर्डेड ईमेल का हिन्दी रुपांतरण)
 
प्रिय मित्रों,
 
हमें हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी का और उनके केबीनेट के सभी मंत्रीजनों का तहेदिल से शुक्रिया अदा करना चाहिये जो उन्होने नौकरी में आरक्षण की बात उठाई.
 
हमें उनके इस कदम का स्वागत करते हुये अपना समर्थन देना चाहिये. और हो सके तो इस आरक्षण को जल्द से जल्द लागू करवाने हेतु जो भी बन पडे सब करना चाहिये.
 
साथ ही साथ, हमें हर फ़ील्ड में आरक्षण लागू हो ऐसी व्यवस्था भी करनी चाहिये. यहाँ तक की खेंलों में भी.
 
१. अपनी टीम में १० प्रतिशत स्थान अपने मुसलमान भाईयों का होना चाहिये.
२. ३० प्रतिशत अ.जा, अ.ज.जा, एवं अ.पि.व. के लिये.
३. बाकी बचे में सामान्य, भू.पू.सै. इत्यादि.
 
यही नही, क्रिकेट के नियमादि भी आरक्षण के अनुसार बदलने चाहिये:
१. क्रिकेट का मैदान आरक्षित वर्ग के लिये कम करना होगा.
२. किसी भी आरक्षित खिलाडी द्वारा मारा गया चौक्का - छक्के में, एवं छक्का - अठ्ठे में तब्दील होगा.
३. किसी भी आरक्षित खिलाडी द्वारा ६० रन पूरे करने पर ही उसे शतक मान लिया जाना चाहिये.
४. अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड से ये नियम लागू होंगे कि शोऐब अख्तर जैसे तेज गेंदबाज हमारे आरक्षित खिलाडियों को तेज गेंद नहीं फ़ैकेंगे.
५. तेज गेंदबाजी की अतिसीमा ८० कि.मी.प्र.घ. होगी, इससे तेज गेंद अमान्य करार दी जायेगी.
 
भारत को अपनी शक्ति एवं वरीयता का लाभ उठाते हुये ओलंपिक में भी आरक्षण लागू करवाना चाहिये:
१. १०० मी. की दौड में अपने आरक्षित खिलाडी द्वारा ८० मी. ही पूरे करने पर दौड पूरी मान ली जानी चाहिये.
 
हवाई जहाज कम्पनी में भी आरक्षण होना चाहिये:
१. पायलटों की भर्ती में आरक्षण होना चाहिये, और उन्हे हमारे माननीय नेतागणों के लाने ले जाने हेतु अनुबंधित किया जाना चाहिये.
 
चिकित्सा क्षेत्र में:
१. हमारे माननीय नेतागणों के चिकित्सा, इलाज हेतु सिर्फ़ आरक्षित वर्ग के ही डाक्टर, कंपाउंडर नर्स इत्यादि को अनुमति दी जानी चाहिये.
 
हमें हमारे भारत को और आगे ले जाने के लिये नये नये विचार सोचने चाहिये, तभी हम तरक्की कर पायेंगे, और अपने भारत पर गर्व कर पायेंगे.
 
अगर आपके पास और विचार हो तो अवश्य प्रकट करें.
 
जय हिन्द!!!
 

Sunday, April 16, 2006

मन व्यथित है

अगर मंदिर या मुर्तियाँ तोडने से ही किसी धर्म को कोई नुकसान पहुँचा सकता होता तो, हिन्दू धर्म कब का इतिहास के पन्नों में दफ़न हो गया होता.
 
आखिर इन्हें क्या चाहिये?
 
ये डरपोक लोग अपनी बात तो ढंग से सामने रख नहीं सकते, और इस तरह से कायराना हरकत कर के क्या समझते हैं कि मैदान मार लिया?
 
बेजुबान मुर्तियों को तोड कर इन्हें क्या मानसिक संतुष्टि मिल जाती है?
 
अभी तक तो इस शर्मनाक कार्यवाई में किसी समुदाय विशेष का हाथ जाहिर नहीं हुआ है, मगर मुझे यकीं है कि किसी और के बारे में सोचने की जरुरत भी नहीं है.
 
क्योंकि संसार के किसी भी कोने में चले जाओ, उन लोगों की मानसिकता तो वही रहती है.
 
"मैं" के आगे कभी कुछ सोचा ही नही होगा. "हम" तो उनके शब्दकोष में है ही नहीं.
अरे जब आपस में ही प्यार से नहीं रह पाते तो तीसरे के लिये क्या खाक सोचेंगे.
 
इस शर्मनाक कृत्य को देखकर और इसी तरह की पिछली कई घटनाओं को याद कर तथा अभी भी हिन्दू समुदाय की चुप्पी को देखकर मुझे एक कहानी याद आ रही है-
 
एक गांव था. उस गांव के लोग पीने के पानी के लिये दो कुँवों पर निर्भर थे. एक तो बिल्कुल ही पास में था, और दुसरा काफ़ी दुर था.
एक दिन कहीं से एक जहरीला सांप गांव के पास वाले कुंऐ के पास आ गया और वहीं रहने लगा.
जो भी उस कुंऐ के पास पानी लेने जाता था तो सांप उसे डस लेता था. इसके डर से, गांव वालों ने उस कुंऐ पर जाना छोड दिया था, और पानी लेने दूर के कुंऐ पर जाने लगे थे.
इससे काफ़ी समय और श्रम नष्ट होता था.
 
एक दिन उस गांव में एक साधु आया.
गांव वालों ने उसे सांप के बारे में बताया. साधु सांप के पास गया और उसे अहिंसा का उपदेश दिया कि दूसरों का नुकसान करना, अहित करना बुरी बात है इत्यादि.
जिसका सांप पर तुरंत प्रभाव पडा और उसने लोगों को डसना छोड दिया.
 
जब लोगों को यह पता चला तो काफ़ी खुश हुये. उनमें से कुछ जोशीले लोग अपनी बहादूरी दिखाने के लिये सांप को परेशान भी करने लगे.
जब सांप ने डसना छोड दिया तो लोगों ने उससे डरन भी छोड दिया.
बच्चे तक आते जाते सांप को परेशान करते, उसे पत्थर मारते. मगर सांप तो बदल चुका था, उसने अहिंसा का रास्ता अपना लिया था.
इतना परेशान होने के बावजूद वह अपना आपा नही खोता था.
 
कुछ दिनों बाद वही साधु महाराज फ़िर गांव में आये. और फ़िर उस सांप के हालचाल देखने उसके पास गये.
उसे घायल और कष्ट में देखकर काफ़ी दुखी हुये.
तब उन्होने सांप को फ़िर उपदेश दिया-
 
"दूसरों को नुकसान पहुँचाना तो बुरी बात है ही, मगर खुद का बचाव ना करना उससे भी बुरी बात है.
तुम भले ही लोगों को डसो मत, परन्तु, कोई तुम्हें परेशान करने आये तो सिर्फ़ सहते मत रहो. कम से कम फ़ुँफ़कार के उसे दूर तो भगा सकते हो."
 
तब से वो सांप डसता तो नहीं है, मगर जब कोई उसके पास उसे परेशान करने जाता है तो फ़ुँफ़कार के उसे भगा देता है.
 
अब मुझे ऐसा लगता है कि हिन्दू भी वही सांप हो गया है, वैसा सांप जिसने अहिंसा का पाठ तो पढ लिया है, मगर खुद की आबरू की कीमत पर.
आते जाते कोई ना कोई हमें नुकसान पहुँचा देता है, मगर हम "अहिंसा" को ले के बैठे रहते है.
 
जब तक हम खुद की रक्षा करने नहीं उठेंगे, तब तक हम यूँही नुकसान उठाते रहेंगे.
 
मैंने कई लोगो के चिठ्ठों पर यह प्रश्न देखा है कि जिस तरह दूसरे समुदाय वाले "एकजूट" हैं वैसे हिन्दू क्यों नहीं है?
 
इस बात का उत्तर एक बहुत आसान से उदहरण से समझाना चाहुंगा, जो मैंने और शायद आपने भी बहुधा गौर किया होगा, कि - कई लोग धुम्रपान या गुटखे वगैरह के आदि होते हैं.
उस तरह के जाने अनजाने लोग भी अपने व्यसन की वस्तुयें आपस में "शेयर" कर लेते हैं. भले ही एक दूसरे से अपरिचित हों, मगर कभी, सिगरेट, लाईटर, या गुटखा मांगने में किसी को शर्म नहीं आती. और ना ही देने वाला कुछ गलत सोचता है. मगर अधिकतर लोग अपना पानी, या शीतलपेय या दूसरी अन्य खाने की वस्तुएं explicitly ना तो मांगते हैं, और ना ही देते होंगे.
 
बात हो सकता है कि छोटी सी हो, मगर मैं अपनी समझ से कहता हूँ कि- जो लोग गलत होते हैं वे अपनी गलती में सबको शामिल करना चाहते हैं, और अपनी तरह के लोगों को सहारा देते हैं, ताकि कोई सिर्फ़ उनपर उंगली ना उठा सके. जो कि "सही" तरफ़ वाले नहीं करते, या शायद करना नहीं चाहते. ये भी हो सकता है कि शायद उन्हे इसकी जरुरत ही महसूस नही होती होगी.
 
क्या किसी के पास है जवाब इस बात का कि
 
क्यों टूटते सिर्फ़ मंदिर ही हैं?
क्यों सिर्फ़ मंदिरों में ही गोलियां चलती है?
क्यों सिर्फ़ मंदिर में ही लोग मरते हैं?
 
अंत में मेरा तो यही कहना है कि- जब तक न दो उन्हे सजा,  तब तक आयेगा नहीं मजा.

Thursday, April 13, 2006

फ़ोरम के नाम चुनने की प्रक्रिया

जैसी कि आजकल हवा चल रही है, अपने सभी ब्लागर बंधु एक "नाम" के पीछे पडे हुये हैं.
 
नाम भी कोई ऐसा वैसा नही, हिन्दी के एक "फ़ोरम" का नाम.
 
एक भाई ने यह महान "रिस्पोन्सिबिलिटी" उठाते हुये सबको "छू" कर दिया है कि "नाम सुझाओ", और बाकी के भाई लोग लग पडे हैं "नाम सुझाने".
 
लोग बाग भी कम नही हैं. रख रख के दिये जा रहे हैं, दिये नही, फ़ैके जा रहे हैं.
 
लो, ये लो, ये भी लो, और ये भी लो.
 
कुछ भाई झटके मार मार के टिका रहे हैं. छोटे छोटे झुंड में. पहली बार ४ भेजते हैं, दूसरी बार ६, तीसरी बार ३ इत्यादि. एंड द प्रोसेस गोस ऑन..
 
कुछ एकसाथ ढेर पे ढेर दे रहे हैं.
 
कोई तो कह रहा है  कि मैं आज नहीं रविवार को दुँगा. जैसे कि अभी खाना तैयार नही है, पका रहा हूँ, पक जायेंगे तब लाउंगा.
 
दीगर बात यह है कि - सारा का सारा अंतर्जाल छान लिया गया है, सारे अंग्रेजी नामों का हिन्दीकरण हो चुका है. यहाँ तक कि रशियन, जर्मन और चायनीज नाम भी लिस्ट में हो सकते हैं.
 
अब किसी को यह बात नहीं पता कि इतने सारे नामों में से "एक नाम" कैसे चुना जायेगा.
 
मुझे कुछ विश्वस्त सूत्रों इस प्रक्रिया के बारे में कुछ कुछ ज्ञात हुआ है, और वही मैं यहाँ छाप रहा हूँ. आगे और नाम सुझाने वालों से निवेदन है कि निम्न प्रक्रिया को मद्देनजर रखते हुये ही नाम "सुझायें".
 
यह विधि नीचे दी गई प्रक्रियाओं के विशेष मिश्रण से बनाई जा रही है.
 
१. सारे नामों की चिट बना कर अपने सामने बिछा ली जायेगी और फ़िर "अक्कड बक्कड" कर के उनके उपर हाथ फ़िराया जायेगा, जहाँ "अक्कड बक्कड" खत्म होगा और हाथ जिस चिट के उपर होगा, वही नाम "सिलेक्ट" कर लिया जायेगा.
 
२. "अक्कड बक्कड"  की जगह पर आज की तारिख का कोई प्रचलित फ़िल्मी गाना भी चला सकते हैं. (म्युझिकल चेयर की भांति).
 
३. सारे नामों की चिट बना कर एक बडे से बर्तन में इकठ्ठी कर ली जायेगी, और फ़िर उसे खुब अच्छी तरह से मिला कर, किसी बच्चे के हाथों से उसमें से एक चिट निकलवाई जायेगी.
 
४. अगर नाम "शार्ट एंड स्वीट" निकले तो हो सकता है कि बच्चे की जगह कम कपडों में कोई फ़िल्म अभिनेत्री रही हो.
 
५. सारे नामों की चिट एक पंक्ति में रखी जायेगी और अपने चौराहे के "जोतिस" (ज्योतिषी) बाबा को बुला कर, उनके "रामलाल" (तोते का नाम है) से एक पर्ची छंटवाई जायेगी.
 
६. एक 'लकी' सिक्का ले कर, तब तक चित-पट किया जायेगा जब तक कि सारी चिटें "एलिमिनेट" होते होते सिर्फ़ एक चिट ना बच जाये.
 
७. सिक्के की जगह "सांप सीढी' खेलने वाला पाँसा भी लिया जा सकता है.
 
८. कुवैत से एक मीटर, ऊप्स सॉरी, एक किलो रेत मंगवाई जायेगी, और सारी चिटों को जमीन पर बिछा कर उनके उपर वो रेत फ़ैंकी जायेगी. जिस चिट के उपर रेत के सर्वाधिक कण होंगे, उसे "सिलेक्ट" कर लिया जायेगा.
 
९. सारी चिटों को तोला जायेगा, जिसका वजन सबसे ज्यादा होगा उसी को "सिलेक्ट" किया जायेगा. आखिर नाम भी तो वजनदार होगा ना.
 
१०. अंतिम उपाय, एक नया ब्लाग बना कर उस पर सारे के सारे नाम लिख दिये जायेंगे, फ़िर ब्लाग पर आने वालों से उन नामों पर वोट करने की प्रार्थना की जायेगी, वोटिंग के लिये ब्लाग पर ही सुविधा होगी. जो बंधु ब्लाग पर नही आते, उनके लिये एक मोबाईल नम्बर भी दिया जायेगा. जिसपर वे एस.एम.एस कर अपना वोट दे सकते हैं. एक तय समय के बाद सारे वोटों को गिन कर "ब्लागायडोल नाम" चुना जायेगा.
 
 

Saturday, April 08, 2006

जरुरत क्या है... (जगजीत सिंह)

पेश है मेरी पसंद की एक और गजल,
जगजीत सिंह जी के किसी एल्बम से.
उम्मीद करता हूँ, आपको भी पसंद आयेगी.
 
इस गजल का तीसरा शेर मुझे खासतौर से पसंद है, जो, 
आज की इस मतलबपरस्ती की दुनिया में,
अक्सर अपने आसपास महसूस करता हूँ.
 
बे-सबब बात बढाने की जरुरत क्या है,
हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
बे-सबब बात बढाने की जरुरत क्या है,
 
रंग आँखो के लिये, बू है दिमागों के लिये,
रंग आँखो के लिये, बू है दिमागों के लिये,
फ़ूल को हाथ लगाने की जरुरत क्या है!
...हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
 
तेरा कूचा, तेरा दर, तेरी गली काफ़ी है,
तेरा कूचा, तेरा दर, तेरी गली काफ़ी है,
बेठिकानों को, ठिकाने की जरुरत क्या है!
..हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
 
दिल से मिलने की तमन्ना ही नहीं जब दिल में,
दिल से मिलने की तमन्ना ही नहीं जब दिल में,
हाथ से हाथ, मिलाने की जरुरत क्या है!
..हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
 
बेसबब बात बढाने की जरुरत क्या है,
हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
 
टीप: अंतर्जाल पर ढुँढने की कोशिश नहीं की, कारण-की इच्छा नहीं हुई. जितनी और जैसी याद थी लिख दी है, अगर कुछ गलती हो तो क्षमा चाहुंगा.

Friday, April 07, 2006

समझते थे मगर फ़िर भी...(पार्ट २)

समझते थे मगर फ़िर भी ना खुद को संभाला हम ने,
समझते थे मगर फ़िर भी ना खुद को संभाला हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
कोई पाठक हमारे ब्लाग पर आता भी तो क्या आता,
जमा कर रखा है साहित्य की जगह भरसक  कुडा हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
युँ ही टीप टीप कर लिखना हमें मंजुर है लेकिन,
कभी खुद का दिमाग भी तो ना चलाया हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
हम उस पोस्ट को काश इक बार 'एडिट' कर पाते ऐ 'विजय',
क्योंकि ' वाली' की जगह 'गालिब'  ही लिख डाला हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
अनुप भैय्या ने किया ईशारा और बताया खुल के भी हमको,
मगर फ़िर भी ना अपना पोस्ट सुधारा हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
क्यों दुरुस्त नही कर पाये हम यह गलती अपनी,
यही 'सफ़ाई' देने के लिये इतना और लिख डाला हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
इस बेसिरपैर की गजल को कोई गाने को ना कह दे हमको,
इसलिये अपना रिकार्डर ही खराब कर डाला हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
अब आप हमको ढुँढेंगे और फ़िर फ़ोडेंगे शायद सर हमारा,
बचने के लिये अभी से हेलमेट पहन लिया हमने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
ये भी हो सकता है कि किसी छत से ढकेला जाये हमको,
तभी तो एक उडनतश्तरी का भी बन्दोबस्त है कर रखा हमने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
कोई टोना टोटका भी कभी हम पर ट्राय तक मत करना,
पहले ही से हनुमान चालीसा अपने ब्लाग पर है लिखा हमने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
समझते थे मगर फ़िर भी ना खुद को संभाला हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हमने!!

Thursday, April 06, 2006

झेलिये....

 
कल परसों पता नहीं किस पिनक में हमने कहीं से एक गजल के बोल ढुँढ कर यहाँ  लिख छोडे थे.
 
हमारे एक मित्र श्रीमान रा० च० मिश्र जी ने कहा, कि भैय्या लिखा तो है ही, सुना भी देते तो और अच्छा होता.
 
यकीं मानिये, हम गलत नहीं समझे.
 
हमने तो पुरी इमानदारी से कोशिश की थी वो गजल  ढुँढने की, मगर अब नहीं मिली तो क्या अपने दोस्त को निराश कर देते?
 
नहीं, बिल्कुल नहीं.
 
उनके लिये, खास उनके लिये, हमने वो गजल "खुद" गाई. इसे कहते हैं यारी निभाना. है कि नहीं?
 
तो लीजिये, आप भी झेलिये, सॉरी, आई मीन, सुनिये, जगजीत सिंह जी की वो गजल हमारी दिलकश, दिलबहार, दिलपसंद, दिलफ़लाना, दिलढिकाना आवाज में..
 
 
नोट १: किसी को इंडियन आयडल वालों का नम्बर पता हो तो कृपया उन्हें मेरे ब्लाग का पता बता दिजीयेगा, और फ़िर मेरे लिये sms भी कीजियेगा.
 
नोट २: गालियाँ, सडे अण्डे, टमाटर, चप्पल जूते (पेयर में) कृपा करके श्रीमान रा० च० मिश्र जी के पते पर फ़ारवर्ड करें.

किसी ने जादू टोना किया है!

 
मेंरे ब्लागस्पाट के अकाउंट पर लगता है किसी ने जादू टोना किया है.
 
लागिन होता है, सेटिंग्स वाले सारे पन्ने खुलते एवं चलते हैं, बस्स वो पोस्ट करने वाला पन्ना ही नहीं खुलता.
 
कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं कुछ ज्यादा ही लिख बैठा हूँ?
 
अरे नहीं यार, झुठ नहीं बोल रहा.
 
क्या कहा? ये पोस्ट कहाँ से किया?
 
अरे यार, ब्लागस्पाट में एक Email वाली सेटिंग है, जहाँ ब्लागस्पाट आपको एक सुविधा देता है जिससे आप एक विशेष email पर अपना पोस्ट प्रेषित कर सकते हैं, और वह email  आपके ब्लाग पर पोस्ट हो जाता है. याने "हींग लगे ना फ़िटकरी, और रंग भी चोखा आये".
 
है ना सही!!?!!
 
तो मैं आजकल Gmail से ही पोस्ट कर रहा हूँ इसके rich text editor की सहायता से.
हाँ मैं, पोस्ट करने के बाद उसे संपादित (एडिट) नहीं कर पा रहा हूँ. क्योंकि संपादन हेतु तो ब्लागस्पाट में ही लागिन करना होगा.
 
तो जब तक ये दुविधा दुर नहीं होती तब तक :-
 
"बुरी नजर वाले, तेरे बच्चे जियें, और बडे होकर तेरा ही खून पीयें"

Tuesday, April 04, 2006

समझते थे मगर फ़िर भी...(जगजीत सिंह)

वैसे तो जगजीत सिंह जी की सारी गजलें बहुत अच्छी होती हैं,
बोल और आवाज, दोनो दिल की गहराईयों तक उतरते हैं।

मुझे उनमें से कुछ-एक, विशेष रुप से पसन्द हैं।
पेश-ए-खिदमत है उन्ही चुनिन्दा गजलों में से एक:

समझते थे, मगर फ़िर भी न रखी दुरियाँ हमने,
चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।

कोई तितली हमारे पास, आती भी तो क्या आती,
सजाए उम्र भर कागज के फ़ुल-ओ-पत्तियाँ हमने,
..चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।

युँ ही घुट घुट के मर जाना हमें मँजुर था लेकिन,
किसी कमजर्फ़ पर जाहिर ना की मजबुरियाँ हमनें,
..चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।

हम उस महफ़िल में बस इक बार सच बोले थे ऐ गालिब,
जुबां पर उम्र भर महसूस की चिंगारियाँ हमने,
..चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।

समझते थे, मगर फ़िर भी न रखी दुरियाँ हमने,
चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।
 
है ना बढिया?

Friday, March 31, 2006

एक दीवाना नेट पर...

एक दीवाना नेट पर,
वर्डप्रेस पर या ब्लागर पर,
लिखने का बहाना ढुंढता है,
और छपने का बहाना ढुंढता है.

इस हिन्दी ब्लागिंग की दुनिया में अपना भी कोई ब्लाग होगा,
अपने पोस्टों पर होंगी टिप्पणियां, टिप्पणियों पे अपना नाम होगा,
देवनागरी के यूनिकोड फ़ोण्टों में लिखने का जतन वो ढुंढता है,
ढुंढता है,
लिखने का बहाना ढुंढता है,
और छपने का बहाना ढुंढता है.

एक दीवाना नेट पर,
वर्डप्रेस पर या ब्लागर पर,
लिखने का बहाना ढुंढता है,
और छपने का बहाना ढुंढता है.

जब सारे हिन्दी में...
सारे? और हिन्दी में!
जब सारे हिन्दी में लिखते हैं, सारा नेट हिन्दी हो जाता है,
सिर्फ़ इक बार नहीं फ़िर वो लिखता, हर बार लिखता जाता है,
पल भर के लिये..
पल भर के लिये..
किसी ब्लागिंग का अवार्ड भी जीतना चाहता है,
चाहता है,
लिखने का बहाना ढुंढता है,
और छपने का बहाना ढुंढता है.

एक दीवाना नेट पर,
वर्डप्रेस पर या ब्लागर पर,
लिखने का बहाना ढुंढता है,
और छपने का बहाना ढुंढता है.

Wednesday, March 29, 2006

मिल गया, हमको तोहफ़ा मिल गया...

रवि भाई को बहुत बहुत शुक्रिया जो उन्होने हमारे जन्मदिन की सालगिरह (जीतू भैय्या ध्यान दें) के उपलक्ष्य में बतौर उपहार पुरा का पुरा 'पोस्ट' ही हमारे नाम कर दिया. भले ही जबरन माँग के लिया है, पर अब तो हमारा है.

काफ़ी दिनों बाद एक 'इंटैलेक्चुअल' तोहफ़ा मिला है. सधन्यवाद एवं सहर्ष अंगीकृत!!

तोहफ़ा मिलते ही सोचा टिप्पणी दी जाये, मगर फ़िर लगा कि सिर्फ़ टिप्पणी देना रवि जी के दिये गये तोहफ़े की शान में गुस्ताखी होगी, इसलिये 'पलट पोस्ट' कर रहा हूँ.

अब लोगबाग सोच रहे होंगे कि इसमे 'इंटैलेक्चुअलपना' कहाँ है, तो बंधुवर, अगर कोई जिन्दगी के फ़लसफ़े साफ़ सुंदर सटीक शब्दों में आपको टिका रहा है तो वह भले लोगों की भाषा में 'इंटैलेक्चुअलिटी' ही कहलाती है.

वैसे मेरा तो मानना है कि जीवन में ३ "" का बडा महत्व है, और इन्ही तीन "प" के कारण सब लोग पागल रहते हैं.

ये ३ 'प' हैं- प्यार, पैसा और परेशानी.

इन तीनों का काम एक दुसरे के बिना नहीं चलता, या यूँ कहें कि ये तीनो एक दुसरे के पूरक हैं तो भी अतिश्योक्ति ना होगी.

प्यार और पैसा जहाँ आ जाता है, वहाँ पीछे पीछे परेशानी भी आ ही जाती है. मगर जहाँ प्यार और पैसा नहीं; मियां जहाँ इनमें से कोई नहीं वहाँ पहले ही से परेशानी के अलावा क्या रहेगा?

रवि जी ने बडी सफ़ाई से हमें (सबको) ये समझाने की कोशिश की है कि-'खबरदार, अभी भी वक्त है, मान जाओ', मगर क्या करें? 'दिल तो पागल है, दिल दीवाना है..'

अब अपना तो 'दिल है कि मानता नहीं..', और फ़िलहाल तो प्रसन्न हैं और इंतजार कर रहे हैं (रवि जी की लिस्ट में अंतिम से तीसरा बिन्दु).
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चाहता तो था कि और बहुत लिखुँ मगर क्षमा चाहता हूँ.

पहली बार अपने जन्मदिन (जीतू भैय्या, हम तो "जन्मदिन" ही बोलेंगे आप चाहे जो समझिऐ) पर अपने प्रियजनों से काफ़ी दूर बैठा हूँ, खुद फ़ोन कर कर के शुभकामनाऐं लेनी पड रही है, और 'होम सिकनेस', 'फ़्रेण्ड्स सिकनेस', 'इंडिया सिकनेस' न जाने कौन कौन सी सिकनेसें होने लगी है.

अब तो और लिखा नहीं जा रहा.

खत को तार और थोडे को बहुत समझिऐ.

शब्ब-बह-खैर!!

Friday, March 24, 2006

हिन्दी का शब्दकोष

शायद कोई (और) तो ऎसा होगा जिसे इसके बारे में नहीं पता होगा,
क्योंकि थोडी देर पहले तक मुझे भी नहीं पता था.

यहाँ आप अंग्रेजी के शब्दों की हिन्दी में अर्थ सहित व्याख्या खोज सकते हैं:

शब्दकोष (http://www.shabdkosh.com)

हममें से कोई इसे भी समृद्ध बनाने में अपना योगदान दे सकता है.

Wednesday, March 22, 2006

फ़िर ना कहना कि बताया नही...

ऎसा ना हो कि:-
सांप निकल जाय और आप लोगों के पास लकीर पीटने के अलावा कुछ ना बचे!
या फ़िर चिडिया खेत चुग जाये और आप लोग बस पछताते ही रह जायें!
या फ़िर "का वर्षा जब कृषि सुखानी" इस टाईप का कुछ हो जाये!

याने कि बचपने में सुनी हुई ऎसी कोई भी कहावत आपकी आपबीती ना बन जाये,
और आप लोगों को मुझसे मुँह छिपाते फ़िरना पडे.

ऎसी किसी भी शर्मनाक स्थिति से आपको बचाने के लिये ही मैं आज ये लिखने बैठा हूँ.

तो बन्धुओं, भाईयों और बहिनों, दोस्तों और दोस्तनियों, नियमित मेरे ब्लाग पर भ्रमण करने वालों, और अनियमित रुप से पधारने वालों, यहाँ तक कि भूले भटके आने वालों से भी मेंरा नम्र निवेदन है कि आप लोग अभी से बचत करना प्रारंभ कर दीजिये, बाद में पैसे वगैरह की किल्लत का बहाना नहीं चलेगा और ना ही हम ये सुनेंगे कि महीने के आखिरी दिन है वगैरह वगैरह.

क्या? क्या पुछ रहे हैं? क्यों?

अरे! आज से ठीक ७ दिनों बाद हमारी जन्म की वर्षगांठ है,
याने कि सालगिरह,
याने कि जन्मदिन,
याने कि अपना हैप्पी बड्डे टू यू है यार!

क्या कहा? जमा की गई धनराशि का क्या करना है ?

अरे यार, आप भी अजीब हो, अरे जन्मदिन पर खाली हाथ चले आओगे क्या?
कोई गिफ़्ट-विफ़्ट लाने का इरादा है कि नही?

जैसे:-
जीतू भैय्या कुवैत से एक आध छोटा मोटा तेल का कुँआ देने वाले हैं,
मिश्राजी अपनी रसायनशास्त्र की कुटी में से मेंरे लिये कुछ "आयु घटाओ" वटी बना कर देने वाले हैं,
रवि जी तो मेरे लिये अपने कुछ अनुवाद लाने वाले हैं,
तरुण और रमण कौल जी तो अमरीका से कुछ भारी ही चीज ला रहे लगता है,
पंकज एवं संजय बेंगाणी जी अहमदाबाद से मेरे लिये ताजा तरीन ब्लाग शुरु करने वाले हैं,
अनुनाद सिंह जी तो अपने इन्दौर ही के हैं, नमकीन और सराफ़े की मिठाईयों के अलावा कुछ और लाने का सवाल ही कहाँ,
हाँ, समीर लाल जी कनाडा से उडनतश्तरी ही भेजने वाले हैं ऎसा लगता है.

हाँ बाकी आप लोग आपस में सिन्क्रोनाईज्ड रहिये, ऎसा ना हो कि कोई एक ही गिफ़्ट दुबारा मिल जाय.

तो मित्रों याद रहे २९ मार्च २००६ (सन भी लिख दिया है ताकि गडबडी की कोई गुंजाईश ना रहे) तक आप सबके तोहफ़े मिल जाने चाहिये, वरना ऎसा 'कुलबुलाऊंगा' कि आप लोग अपना ब्लाग भी मेरे नाम कर देंगे.

आपका अपना - विजय वडनेरे