Saturday, December 08, 2007

ज़िंदगी की राहों में, रंजो गम के मेले हैं...

कुछ यादें होती हैं ऐसी जो काफ़ी पुरानी होने पर भी ज़ेहन से अपनी छाप मिटने नहीं देती.
 

वैसी ही कुछ बातों में से है –पाकिस्तानी गज़ल गायक ज़फ़र अली की गाई ये गज़ल. मैं इसको तब से सुनता आ रहा हूँ जब से मैने इसे समझना भी शुरु नहीं किया था. दरअसल, मेरे पापा को गज़लों का बहुत शौक रहा है, और उनका कलेक्शन भी बहुत बड़ा है. घर पर जगजीत सिंह, अनुप जलोटा, तलत अज़ीज़, ज़फ़र अली, गुलाम अली और न जाने किन किन की ढेरों कैसेट्स पड़ी हैं. लगता है कि मुझे भी वहीं से "सुनने" का शौक लग गया है, परंतु शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि मैं खुद गया और कोई रिकार्ड, कैसेट, सीडी वगैरह खरीद कर आया, अरे! समझ नहीं आता यार कि कौन सी लूँ. हाँ जो घर पर है उसी को सुन कर अपना शौक पुरा कर लिया करता था.

 

अब इस गज़ल की बात करें - तो जानें क्यों मुझे यह बहुत पसंद है. आवाज़ और शायरी दोनों. अभी ही बैठ कर सुन रहा था तो जाने क्या सुझी कि जैसे तैसे कर के सारे "बोल" (लिरिक्स) लिख लिये, और सोचा आप सबको परोस दूँ.

 

तो लीजिये, आप भी बोलों का मज़ा लीजिये:-

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आऽऽऽऽ ऽऽ

मैं तमाशाऽऽऽऽऽऽ

तमाऽऽऽशा

मैं तमाशा तो दिखा दूँ सितमाराई का,

क्या कहुँ हश्र में डर है तेरी रुसवाई काऽऽ,

 

ज़िंदगीऽऽऽऽऽऽ

ज़िंदगीऽऽ की उदास राहों में,

इक दीया भी टिमटिमाता है,

ऐ तमन्नाओं से भी गुलऽऽऽ कर दे,

ढल चुकी रात अब कौन आता है.

 

ज़िंदगी की राहों मेंऽऽ, ज़िंदगी की,

ज़िंदगी की राहों मेंऽऽ

ज़िंदगी की राहों मेंऽऽ

रंजो ग़म के मेले हैं,

रंजो ग़म के मेले हैं,

भीड़ है कयामत की

भीड़ है कयामत की

भीड़ है कयामत की

और हम अकेले हैं,

और हम अकेले हैं,

 

ज़िंदगी की राहों मेंऽऽ, ज़िंदगी की,

 

आईने के सौ टुकड़े

हम ने कर के देखे हैं,

हम ने कर के देखे हैं,

आईने के सौ टुकड़े

हम ने कर के देखे हैं,

हम ने कर के देखे हैं,

आईने के सौ टुकड़े

हम ने कर के देखे हैं,

एक में भी तन्हा थे

एक में भी तन्हा थे

एक में भी तन्हा थे

और सौ में भी अकेले हैं,

सौ में भी अकेले हैं,

 

भीड़ है कयामत की

भीड़ है कयामत की

भीड़ है कयामत की

और हम अकेले हैं,

और हम अकेले हैं,

 

गेसुओं के साये में एक शब गुज़ारीऽऽऽऽ,

गेसुओं के साये में एक शब गुज़ारी है,

गेसुओं के साये में एक शब गुज़ारी है,

आप से जुदा हो कर,

आप से जुदा हो कर

आप से जुदा हो कर

आज तक अकेले हैं,

आज तक अकेले हैं,

 

भीड़ है कयामत की

भीड़ है कयामत की

भीड़ है कयामत की

और हम अकेले हैं,

और हम अकेले हैं,

 

गुल पे है फ़िदा बुलबुल

और शम्मा पे है परवाना,

शम्मा पे है परवाना,

शम्मा पे है परवाना,

 

पा नी नी

सा सा सा

नी नी सा

नी नी सा

नी नी रे सा

ग रे सा

रे नी सा

पा नी

मा पा नी

सा सा

 

गुल पे है फ़िदा बुलबुल

शम्मा पे है परवाना,

गुल पे है फ़िदा बुलबुल

शम्मा पे है परवाना,

इस भरी जवानी में

इस भरी जवानी में

इस भरी जवानी में

आप क्यों अकेले हैं,

आप क्यों अकेले हैं,

 

भीड़ है कयामत की

भीड़ है कयामत की

भीड़ है कयामत की

और हम अकेले हैं,

और हम अकेले हैं,

 

जब शबाब आया है

आँख क्युँ चुराते हो,

आँख क्युँ चुराते होऽऽऽ,

आँख क्युँऽऽऽ चुराऽऽऽते होऽऽऽ,

जब शबाब आया है

आँख क्युँ चुराते हो,

 

पा नी

सा गा

मा पा

गा मा

रे सा

नी सा

पा नी

मा पा

गा मा

रे नी

सा – गा – मा – पा – नी – सा

ग रे सा

ग रे सा

ग रे सा

 

जब शबाब आया है

आँख क्युँ चुराते हो,

जब शबाब आया है

आँख क्युँ चुराते हो,

बचपने में हम और तुम

बचपने में हम और तुम

बचपने में हम और तुम

साथ साथ खेले हैं,

साथ साथ खेले हैं,

 

भीड़ है कयामत की

भीड़ है कयामत की

भीड़ है कयामत की

और हम अकेले हैं,

और हम अकेले हैं,

और हम अकेले हैं,

और हम अकेले हैं.
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(कहीं कोई गलती हो तो जानकार लोगों से अपील है कि बता दें ताकि जल्दी से सुधार ली जाय)

3 comments:

Pramendra Pratap Singh said...

बढि़या लगा भाई।

RC Mishra said...

विजय भैया, ज़माना एम पी ३ सुनवाने का आ गया है ब्लॉग पे और आप गज़ल पढ़वा रहे हो..ये कहाँ की शराफ़त है..
जल्दी से इस पोस्ट पे ये गज़ल सुनाने का भी इन्तज़ाम करिये।

sharad said...

बहुत अच्छा लगा दोस्त......