परिचर्चा में,
पुस्तकों से प्यार, टापिक पर अपना पोस्ट करते समय मैं अपने बचपन में चला गया था, जब मैं अक्सर कॉमिक्सों से घिरा रहा करता था.
मुझमें पुस्तकों, खासकर हिन्दी की कॉमिक्स, या चाहे कोई और पत्रिका, पढने का शौक या चस्का बचपन ही से लग गया था.
गर्मी की छुट्टियों में चाहे किताबें खरीदना हो या निकटतम लायब्रेरी से लाना हो, मैं हमेशा तैय्यार रहता था.
वैसे, इस शौक के पीछे मेरे पापा का भी बड़ा हाथ है, कारण कि उन्हे भी पढने का काफ़ी शौक है, और वो हमें (याने मेरे बडे़ भाई को और मुझे) पढने में काफ़ी प्रोत्साहन देते थे.
और एक कारण है मेरे इस शौक के परवान चढने का - वह यह कि - पढने लायक सामग्री की उपलब्धता - वह भी प्रचुरता में.
पढने की हमारी कहानी तीन शहरों में फ़ैली हुई है. यहाँ एक बात जाहिर कर दूँ - पढने में आप लोग "पढाई" को शामिल ना करें तो ही अच्छा होगा.
हाँ तो, पहले हम (हमारा परिवार) भोपाल में रहा करते थे. दो और शहर होते थे, जहाँ हर गर्मी की छुट्टियों में जाना होता था: इन्दौर और उज्जैन.
तो ऐसा था कि भोपाल में हमारे एक परीचित परिवार था जिनकी खुद की एक अदद लायब्रेरी थी. ढेर सारी कॉमिक्सें, पत्रिकायें इत्यादि. मेरी और मेरे भाई कि अक्सर यहा कोशिश होती थी कि हम यदा कदा उन्ही के यहाँ जायें. जैसे तैसे कोशिश किया करते थे कि मम्मी पापा को वहाँ जाने के लिये पटाया जाये. और वहाँ पहुँचते ही दीन-दुनिया से बेखबर हो, बस बैठ जाते थे. एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी....उफ़्फ़. लगता था कि आयें हैं तो सारी की सारी ही पढ ली जाय. क्या पता "कल हो ना हो". हाँ वहाँ उपन्यास भी हुआ करते थे, अरे वही सुरेन्द्र मोहन पाठक वगैरह के, मगर चुँकि हम उस वक्त छोटों की श्रेणी में आते थे (यह बात होगी जब हम पढना समझने से ८वीं कक्षा तक की उम्र में थे) सो उन तक हमारी पहुँच नहीं थी. (उनके यहाँ एक बिल्ली भी थी, और उसके छोटे छोटे पिल्लू भी थे - बिल्कुल रुई के गोलों की मानिंद).
और फ़िर एक सरकारी लायब्रेरी थी, जिसके की पापा सदस्य थे. हजारों उपन्यास (साहित्यिक उपन्यास कहना उचित होगा). मुझे तो याद भी नहीं कि मैने किन किन साहित्यकारों के उपन्यास चाट डाले होंगे. आत्मकथाएं, कविताएं, शेरो-शायरियाँ इत्यादि को छोड़ कर मैने ऐतिहासिक उपन्यास भी खुब पढे और नाटक, तथा अन्य उपन्यास भी.
आते हैं इन्दौर में - जहाँ हमारी दादी रहती थी, वहीं पास ही में था एक सरकारी पुस्तकालय (शायद नेहरू बाल पुस्तकालय, या पता नहीं क्या नाम था) - मालवा मिल वाले क्षेत्र में था चन्द्रगुप्त टॉकिज के सामने. वहाँ ऐसा होता था कि - वहीं बैठ कर पढना हो तो मुफ़्त में और अगर घर लानी तो कोई पुस्तक तो कुछ शायद २० - ३० पैसे लगते होंगे. रोज सुबह नहा-धो के लगभग १०:००-१०:३० तक वहाँ पहुँच जाते थे. १-२ घंटे तो वहीं बैठ कर पढते रहते. और फ़िर १ - २ किताबें ले कर भी आते. भई, दोपहर को भी तो पढने के लिये कुछ चाहिये कि नहीं.
मगर वह लायब्रेरी थी तो सरकारी ही ना. नई तरह कि किताबें ही नहीं आती थी. तो फ़िर एक दूसरी लायब्रेरी पकड़ी गई (शायद "अरोरा लायब्रेरी") यह भी वहीं थी. याने मालवा मिल के चौराहे के पास. वहाँ क्या "कलेक्शन" था...बाप रे! वहाँ से नया प्रयोग किया गया. "डायजेस्ट" और "बाल पाकेट बुक्स" पढने का. क्यों? अरे कॉमिक्स तो फ़टाक से खत्म हो जाया करती थी ना.
और उज्जैन में - वाह, वहाँ एक और परीचित थे, जिनकी खुद की लायब्रेरी थी. और एक दुकान भी. तो कॉमिक्स उठाओ, और दुकान पर बैठ जाओ. मुझे बडा अच्छा लगता था दुकान पर बैठना. लोगबाग कुछ खरीदने आते थे तो सामान निकालो, तौलो...हम्म्म.. ना भूलने लायक अनुभव होत था. तो एक समय ऐसा आया कि हमने उनके यहाँ का सारा बाल साहित्य (अरे कॉमिक्सें इत्यादि) पढ पढ कर खत्म कर दिये. फ़िर बाल पाकेट बुक्स. और फ़िर कब हम धीरे से वो मोटे वाले उपन्यासों पर कुद गये पता ही नही चला. मगर धुन ऐसी होती थी कि एक बार जो उपन्यास उठाया, तो पुरा किये बगैर नहाना-धोना, खाना-पीना सब बंद. याने कि अगर हमारे हाथ में कोई नावेल है तो हम किसी काम के नही रहते थे.
शायद खुब ज्यादा कॉमिक्स पढने का ही कारण रहा होगा कि मैं हिन्दी तो फ़र्राटे से पढने लगा था. कॉमिक्सें तो ५-१० मि० मे खत्म. मेरे कुछ दोस्त आश्चर्य करते थे कि मैं इतनी जल्दी कैसे पढ पाता हूँ. मेरा पढने का तरीका ही कुछ ऐसा होता था जिससे उनको शक होता था. कॉमिक्स तो ऐसे पढता था कि उनलोगों को लगता था कि मैं बस नजर घुमा रहा हूँ पन्नों पर. कई बार बड़ा मजा आता था जब वो मुझे चैलेंज करते थे कि -तुमने पढी नही- फ़िर मैं जो पढा था उसे रीपीट कर के बताता था....!
और फ़िर शायद यही कारण होगा कि मैने उपन्यास पढना शुरू किये. कम से कम कुछ घंटे तो चलता था. :)
और फ़िर बाकी रही सही कसर पापा का संग्रह पुरा कर देता था.
कालेज खत्म होने तक यही हाल रहा, जब तक पुस्तकें पढने का समय भी निकाल लेता था और पुस्तकों की उपल्ब्धता भी होती थी. अब उतनी शिद्दत से तो नहीं, पर यदा कदा, जब कही कोई अच्छी किताब मिल जाती है तो छोडता नहीं हूँ.
अब जब भी "कभी घर जाना होता है", पापा के संग्रह में कोई ना कोई नई किताब मिल ही जाती है.
देखें, अब कब जाना होता है.....
बचपन की और यादें फ़िर कभी ..!!