Friday, June 29, 2007

बडे धोखे हैं इस राह(इमेल) में...

जैसे जैसे इंटरनेट का विस्तार होता जा रहा है और इसका उपयोग करने वाले बढ रहे हैं, वैसे वैसे इसका दुरुपयोग करने वाले भी नहा धो के पीछे पडे हुये हैं.
 
श्याने लोग पुरी तरह से कोशिशों में लगे रहते हैं कि कोई "मुरगा" या "बकरा" मिल जाये तो पार्टी मनाये.
 
बकायदा इमेल का इस्तेमाल कर के काँटे छोड़े जाते हैं, चारा लगा कर, हर दिशा में, कोई तो फ़ँसेगा.
 
यहाँ बात हो रही है चोरी की, जालसाज़ी की. वह भी कोई साधारण वाली (रुपये, डालर इत्यादि) की नहीं वरन उतनी ही (या उससे भी ज्यादा) "इम्पोर्टेन्ट" चोरी है - सूचना (इन्फ़ोर्मेशन) की चोरी.
 
शातिर लोग फ़िराक में रहते हैं आपकी व्यक्तिगत जानकारी चुराने के, ताकि उसका फ़ायदा वे कहीं ना कहीं किसी ना किसी तरह उठा सकें.
 
कई तरीकों में से एक तरीका है "फ़ीशिंग" का. इसमें काँटे पर चारा लगा कर पानी में डाल दिया जाता है. कोई ना कोई भोली भाली मछली इसमें फ़ँस जाती है और अपनी व्यक्तिगत जानकारी, जैसे नाम, पता, फ़ोन नम्बर, बैंक अकाउंट नम्बर, क्रेडिट कार्ड नम्बर, किसी पेड (paid) साईट के कूटशब्द (पासवर्ड्स) इत्यादि फ़िशर को दे बैठती है.
 
सबसे ज्यादा प्रचलन में जो तरीका है उसमें कुछ ऐसा होता है:-
 
कोई "फ़िशर" अपनी टार्गेट जनता को चुनता है. जैसे कि अगर वह किसी बैंक के ग्राहकों की जानकारी चुराने की इच्छा रख सकता है, या फ़िर लोगों के टेलीफ़ोन नम्बर चुराने की सोच सकता है, या फ़िर किसी पैड (paid) साईट के क्रिडेन्शियल्स (user/password).
 
अब जब टार्गेट फ़िक्स हो गया तो वह एक इमेल बनायेगा. हुबहु वैसी ही जैसी कि उस टार्गेट वेबसाईट की हो सकती होगी. जैसे कि बैंक की या, किसी साईट इत्यादि की. उस इमेल में वह बकायदा proper graphics वगैरह का इस्तेमाल करेगा ताकि इमेल पाने वाले को यही लगेगा कि उसे उसी बैंक या साईट से इमेल आई है जिसमें उसका अकाउंट है. उसमें जो मसौदा रहेगा उस का सार इस तरह का हो सकता है
 
१. हमारे सर्वर update हुये हैं, और आपके अकाउंट में problem आ गई है. अत: अपने अकाउंट में log-in करें ताकि आपका अकाउंट सुचारु ढंग से चल सके...
२. आप हमारे पुराने कस्टमर हैं, आपको एक नई सुविधा हम लोग दे रहे हैं, कृपया log-in करें...
३. हमने अपनी साईट में एक नया फ़ीचर डाला है, और आप उन चुनिंदा लोगों में से हैं जिनको हमने चुना है इसके लिये...कृपया log-in करें...
इत्यादि इत्यादि...
 
यानि घुमा फ़िरा कर आपसे आपके उस साईट के अकाउंट पर login करने के लिये कहा जायेगा, और वह भी वही की वहीं दी हुई लिंक पर क्लिक कर कर. अगर आप क्लिक करेंगे तो आपके सामने आपकी साईट का login पन्ना आ जायेगा. फ़िर आप अपने credentials डाल के login कर देंगे. फ़िर या तो यह होगा कि आपका अकाउंट ओपन हो जायेगा, या फ़िर एक error page दिखा कर आपसे फ़िर login करने को कहा जायेगा. (अधिकतर केसेज़ में दूसरी बार login हो जाता है).
 
आपको सब कुछ साधारण लगता है, मगर जो होना होता है वह हो जाता है.
 
पहला, फ़िशर ने अपने ही किसी सर्वर (साईट) पर वह login वाला पन्‍ना बनाया होता है.
दूसरा, अब जैसे ही आप क्लिक करते हैं तो फ़िशर के पास तुरंत यह जानकारी चली जाती है कि आपका इमेल सही एवं valid है. (इसका इस्तेमाल वह दूसरे फ़िशर्स को बेचने में कर सकता है)
तीसरा, जब आप अपने कूटशब्द (credentials) डाल के login करने की कोशिश करते हैं तो आपके द्वारा भरी हुई जानकारी उस फ़िशर के व्यक्तिगत डाटाबेस में चली जाती है (क्योंकि जिस पन्‍ने पर आपने अपनी जानकारी दी है वह तो किसी और सर्वर पर किसी और साईट का पन्‍ना है ना)
चौथा, अगर फ़िशर तकनीकि रुप से ज्यादा सक्षम है तो "आंतरिक" रुप से automaitcally आपके कूटशब्द का प्रयोग कर आपको आपकी वाली actual साईट में login करवा देगा, या फ़िर आपको actual साईट पर ट्रांसफ़र कर देगा. और आपको पता भी नहीं चलेगा कि आपका data कहाँ कहाँ पहुँच गया.
 
तो समझे आप? कि आप खुद कुल्हाडी पर किस तरह से कूदे??
 
क्या कहा? उसको आपका इमेल कैसे पता चला? दो तरीके से पता चल सकता है:--
 
पहला - उसने कहीं से खरीदे हो? चौंकिये मत, ये धंदा तो बहुत पुराना है.
दूसरा - प्रोग्रामेटिक्ली अंदाजे मारे हों. बहुत से प्रोग्राम्स होते हैं ऐसे. प्रोग्रम अपने आप randomly generate करता है इमेल पते (शुद्ध भाषा में - धूल में लठ्ठ मारता है) लग गये सो लग गये, ना लगे वो bounce back हो जाते हैं.
 
तो अब प्रश्न ये उठता है कि इसे कैसे पहचाने और इससे कैसे बचें. है ना? तो जनाब, कुछ एक चीज़ों पर ध्यान देंगे तो पहचान भी जायेंगे:
 
१. इमेल में इस तरह से तो कोई भी कंपनी login करने का नहीं कहती. At least banks etc. तो इस तरह की किसी भी इमेल को आप सीधे से खारिज़ कर सकते हैं.
१.५ ये भी हो सकता है कि जो इमेल आपको इस तरह का मिला है, उसमे आपको एक ऐसी साईट पर login करने का कहा जा रहा है जिसका अकाउंट ही आपके पास नहीं है. (ये automated email generator का कमाल है).
२. दूसरी शर्त है कि इमेल में की कोई भी लिंक पर कभी क्लिक ना करें, जब तक की आपको यकीन ना हो कि वह genuine है.
३. तीसरी शर्त यह है कि अपने browser का status bar जहाँ तक हो सके on रखें. उससे क्या होगा? अरे मिंया, उससे यह होगा कि जब भी आप किसी लिंक पर mouse लायेंगे तो status bar में उस लिंक की actual location दिखेगी. आपकी साईट जिसपर आपका अकाउंट है उसकी location और status bar में दिख रही location को match कीजिये. दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा. १०० में से ९५ बार तो आपको आपकी साईट का पता गलत ही दिखेगा. कोई भलता सा पता रहेगा.
४. अगर फ़िर भी पता ना चल रहा हो और ऐसा लग रहा हो कि इमेल "सही" जगह से आई है तब भी, हाँ हाँ तब भी, इमेल में से किसी भी लिंक को सीधे क्लिक ना करे. नई browser window खोलें और खुद उस साईट का पता टाईप कर के वहाँ login वगैरह जो भी करना है करते रहिए.
 
तो इतनी लम्बी कहानी से क्या शिक्षा मिली आपको??
 
बहुत पहले एक विज्ञापन आता था -
 
ज़रा सी सावधानी
ज़िंदगी भर आसानी
 
वही फ़ंडा है, बस सावधानी रखने के तरीके अलग अलग हैं... :)
 
(कभी इस बारे में और कुछ लिखने का मन होगा तो (ही)/जरुर लिखुंगा)

Tuesday, June 26, 2007

काय म्हणता? (मराठी कविता)

काय म्हणता, काळ बदळला?
पुर्वीच काळ सुखाचा
आता नाही कोण कुणाचा
तोच प्रवास, तोच रस्ता
वीट आलाय या जीवनाचा.
 
मान्य आहे, इंधन महागलंय, प्रदूषण वाढलंय
पण कधी पहाटे लवकर उठून
घन:श्याम सुंदरा ऐकलंय?
ते राहू द्या, सुर्योदयाचं मनोहर रुप
शेवटचं केव्हा पाह्यलंय?
 
मान्य आहे, तुम्ही खूप धावपळ करता,
एकाच वेळी अनेक ठिकाणी असता
पण पाहिलाय कधी पौर्णिमेचा चंद्र
कोजागिरी वगळता?
तृण मखमालीवर आकाश पांघरुन
मोज्ल्यात कधी चांदण्य़ा रात्र सरता?
 
मान्य आहे पाउलवाटांचे हमरस्ते झालेत
अन मनाचे कप्पे अरुंद झालेत.
जरी करीत असाल तुम्ही इंटर्नेटवर हजारो मित्र
पाठवितही असाल ढिगांनी ई-मेल अन चित्र
पण कुणाला पाठवलंय कधी एखादं
पान्नास पैशाचं अंतरदेशीय पत्र?
अन लुटलाय का कधी पोस्टमेन कडून
शुभेच्छा तार स्विकारल्याचा स्वानंद?
 
मान्य आहे, जीवनमान बदललंय,
पालटलाय साराच नूर
आम्हालाही पडते आजकाल
डिजे पार्ट्यांची भूल
पण ऐकलाय का हो कधी
रेडियोवर अकराचा बेला के फ़ूल?
 
मला नाही कळत असं काय झालंय
की ज्यानं आपलं अवघं विश्वच बदललयं
 
सुर्य नाही बदलला, चंद्रही नाही बदलला
काळ आहे तिथेच आहे तो नाही बदलाअ
तुमचा आमचा पहाण्याचा नजरीया बदलला.
 
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एक फ़ार्वर्डेड तस्वीर से यूनिकरण

Friday, June 22, 2007

उसका बच्‍चा मेरे बच्‍चे से होशियार कैसे??

अरे नहीं नही भाई लोगों....
इतनी जल्दी कोई खुशखबरी नहीं है और ना ही हम इस बात को लेकर हमारे पास आने वाले "बधाई-उधाई" को "इण्टरटैन" करेंगे.
 
मैं तो आजकल के गलाकाट माहौल की सच्चाई से आपको रुबरु करवाना चाहता हूँ, और रचनाकार पर पढे एक आलेख के विषय पर एक और किस्सा बताना चाह रहा हूँ.
 
आज ही के समाचार पत्र (सकाळ- पुणे) में यह खबर पढी:
चेन्नई में एक चिकित्सक दंपति ने अपने प्रायवेट क्लीनिक में भर्ती एक गर्भवती महिला की सिझेरियन पद्धति द्वारा प्रसूति करवाई.
(माना कि इसमें कोई खास बात नहीं, मगर हज़रत जरा आगे तो पढिये). हाँ तो ये ऑपरेशन कुछ खास था. तभी तो समाचार पत्र में अपनी जगह बना पाया.
और ये खास इसलिये था क्योंकि ऑपरेशन किया गया था मा० दिलीपनराज द्वारा.
 
अगर यहाँ आपने "मा०" का मतलब "माननीय" लगा लिया हो तो इसमें आपकी कोई गलती नहीं. हर समझदार व्यक्ति (लो आप तो बैठे ठाले समझदारों में आ गये - से थैंक्स!!) ऐसा ही करेगा (है ना?? मैं गलत तो नहीं ही ना??) 
 
मगर सच यह है कि यहाँ "मा०" का आशय "मास्टर" से है, अरे वही मास्टर जो आप और हम अपने नाम के आगे लगाते थे..जब हम "बच्चॆ" हुआ करते थे (मैं यह मान कर चल रहा हूँ कि यहाँ पढने वाले सभी बड़े ही होंगे)
 
तो जी आप सही समझे, ऑपरेशन (सिझेरियन) किया गया एक अल्पव्यस्क बालक के द्वारा, एक दसवीं (१०वीं) कक्षा में पढने वाले पन्द्रह (१५) वर्षीय बालक द्वारा, जिसकी योग्यता केवल इतनी है कि उसके माता-पिता स्वयं डॉक्टर (प्रसूतितज्ञ और जनरल सर्जन) हैं. जच्चा और बच्चा की सेहत की पूछताछ ना कि जाये - समाचार में इसका कोई जिक्र नहीं था.
 
अब किसी प्रायवेट क्लीनिक में क्या क्या होता है, ये या तो वहाँ के डॉक्टरों को पता होता है, या फ़िर वहाँ काम करने वालों को, या फ़िर (बिचारे) मरीज़ों (और उनके परिजनों) को. तो फ़िर ये खबर वहाँ से बाहर आई कैसे? वो तो भला को डॉ०के०मुरुगेषन का. क्या कहा? इन्हें नहीं पहचानते? अरे वही, काबिल बच्चे के काबिल पिताजी.
 
इण्डियन मेडिकल एसोसियेशन (आई०एम०ए०) की एक सभा में कूद-कूद के सबको बता दिये कि (वे और) उनका बालक कितना होनहार है. और उम्मीद करने लगे कि "गब्बर बहुत खुस होगा, साब्बासी देगा". हुँह.
 
"अरे जब १० साल का बच्चा मोटर चला सकता है, ११ साल का बच्चा सॉफ़्टवेयर/वेबसाईट बना सकता है, १५ साल का बच्चा (पढलिखकर) डॉक्टर बन सकता है, तो उनका बच्चा एक छोटा सा सिझेरियन का ऑपरेशन नहीं कर सकता क्या?? क्या फ़र्क पडता है अगर उसने कोई विधिवत चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा नहीं ली. बच्चे के माता पिता स्वयं डॉक्टर हैं, क्या इतना काफ़ी नहीं है? बच्चा खुद बड़ा होशियार है, देखदेख कर सब सीख जाता है, और किसी से कहीं कम नहीं है."
 
ये उपर उद्धृत विचार मेरे नहीं हैं. उन्हीं डॉक्टर साहब के हैं, जो उन्होने आई०एम०ए० के सदस्यों के सामने तब रखे जब उलट उनसे ही इस मामले में सफ़ाई देने को कहा गया.
 
अब (बिचारे) डॉक्टर साहब का अपने बच्चे का नाम किसी रिकार्ड बुक में दर्ज कराने का सपना तो सपना ही रह जायेगा और उस पर उनका खुद का नाम किस किस रिकार्ड (पुलिसीया रिकार्ड) में चढता है और किस रिकार्ड (डॉक्टर पदवी) से बाहर होता है ये तो वक्त ही बतायेगा (क्योंकि आई०एम०ए० के सदस्यों ने डॉक्टर बाबू पर इन्क्वायरी बैठा दी है - और उनसे उनकी डॉक्टरी की डिग्री वापस ले लेने पर भी विचार किया जा रहा है).
 
तो जैसा कि आप सभी को पता चला है (और पहले से भी पता होगा हम तब भी यही कहेंगे - देखें कोई क्या करता है) कि आजकल के बच्चे कुछ जल्दी ही बड़े हो जाते हैं, या यूँ कहना ज्यादा मुनासिब होगा कि बड़ों के द्वारा धक्का दे दे कर बड़ा बना दिये जाते हैं.
 
जो उम्र खेलने कूदने की होती है, अच्छी बातें सीखने की होती है, उस उम्र में आजकल के बच्चे अपने पालकों/शिक्षकों के दबाव में अपने जिंदगी के बेहतरीन पलों को खो रहें हैं. कभी पढाई की चक्की में, कभी किसी "खेल" की दौड़ में, तो कभी गानों की तान में, तो कभी किसी "रिकार्ड" की तलाश में बच्चों का बचपन खोता जा रहा है.
 
उन पालकों /शिक्षकों को कोई किस तरह समझाए कि जो काम, जो मुकाम आप खुद नहीं पा सके अपनीं जिंदगी में, वह अपने बच्चों के उपर "थोपना" कहाँ तक जायज़ है?
 
माना कि कुछ बच्चे वाकई बहुत समझदार, जीनियस टाईप के होते हैं, और थोड़ा भी मार्गदर्शन मिले तो सफ़लता के नये आयाम छू सकते हैं, और छूते भी है. इसमें कोई दो राय नहीं. मगर मार मार के गधे को घोड़ा बनाना, याने कि सिर्फ़ "रिकार्ड" के लिये बच्चों से कोई ऐसा काम करवाना जो उस काम से संबंधित लोगों के लिये और/या खुद बच्चे के लिये खतरनाक साबित हो कहाँ तक सही ठहराया जा सकता है?
 
आपकी राय जानने की इच्छा रहेगी.
 
वैसे एक बात और बतायें? इन्दौर में हमारे परिचित एक दंपति की ४-५ साल की बिटिया को अभी से संसार के सारे देशों के नाम और उनकी राजधानियाँ मुँह-जबानी याद है.

Wednesday, June 20, 2007

खासतोर से भीया लोगों के लिये

आज में भोत घुस्से में हूँ. वेसे तो में भोत दीनों सेईच्च घुस्से में हूँ पन के आज रिया हूँ. अरे यार भीया, मेरे से तो बिल्कुल ही स्‍हेन नी हो रिया हेगा. सच के रिया हूँ यार भीया. दीमाक का तो एक्दम से दहीच्च हो गीया हेगा.
 
हींया तो जिस्को देखो वोईच्च दूसरों को हड़काने में लगा हुआ हेगा. हूल दे रिया हेगा.
 
- देख लुँवा...
- जे कल्लुँवा...
- वो कल्लुवाँ...
- ठूँसा मार दो...
- कीक दो...
- सर फ़ोड्‍दो
ओन्‍नजाने क्या क्या.
 
अरे यार अब इत्‍ती शानपत्‍ती तो अपने ईन्दोर में भी नी होती. अपने हीयाँ के लोग तो कीसी से भी फ़ालतू फ़ोकट में नीं लड़ते. ओर हीयाँ तो देखो, जेसे कोई लड्‍ड्ने का कोई काम्पीटीसन हो रिया हेगा. और नी तो हाँ यार. जेसे कोई जो जीत्‍जायेगा उस्को कोई ईनाम-विनाम मीलेगा. (वेसे कोई रखा हेगा क्या ईनाम-विनाम? - क्या हे ना कि अपन तो भोत दीनों बाद आये ना तो अपने को पता नी हेगा)
 
पन फ़िर भी यार जो अपन पड्‍रये हें ना, अपने को सई बोलूँ तो ठीक नी लग रीया हेगा.
 
अरे अभीच्‍व तो कीसी ने लिखा था कि लिख्‍ने के लिये टोपिक कम पड्‍गये क्या? अरे यार कित्ती सारी बाते हेंगी उन पे लिखो ना यार भीया.
 
पन भीया अपन तो एक्‍दम सच्‍ची बोल्ते हेंगे, जिस्को जो लिख्‍ना हेगा बो लिख्‍ते रये अपन को क्या? अपन को क्या अड़ी हेगी क्या उन्का लिखा पड्‍ने की? जा भीया जा, लिख्‍ता रे, पन्‍ने काले किये जा, खुद्‍की उँगलियाँ फ़ोड़े जा, अपन को क्या? अच्छा ही हे, फ़ाल्तु का लिख लिख के अपना कीबोरड फ़ोड्‍लो, फ़ीर जब अच्छा लिख्‍ने का मन भी करेगा ना, तब भी नी लिख पाओगे. ओर जब तलक अच्छा लिखोगे तब तलक तो बाकी लोग कन्‍नी काट लेन्गे बस्स. फ़ीर तो क्या हे, खुद लिख्‍ना और खुदईच पड्‍ना.
 
फ़ीर अपने कने मत आना, की भीया कोई पड्‍नी रिया हे. अपन तो पता हे फ़िर एकीच्‍च बात बोलेंगे - जेसी कन्‍नी, वेसी भन्‍नी. हाँ.
 
पन भीया, अपन के घुस्से का येईच एक कारन नी हे. एक ओर कारन हेगा. ओर वो ना थोडा पिरसनल टाईप का हेगा.
अपन को यार एक बात नी समझ में आती हेगी, अपन भी लिख्‍ते हेन्‍गे ओर अपने यार लोग भी लिख्‍ते हेन्‍गे पन यार जे नी समज में आता की अपने बिलाग पे इत्‍ते कम ठप्पे* क्यों लगते हें, बिल्कुलईच सूमसाटे पडे रेते हें. जब्‍की दूसरों के देखो तो ओवरफ़ीलो हो रये होते हें.
 
अपन ने तो चुटकुला लीखा, कविता लीखी ओर भी तो कित्‍ता कित्‍ता सारा लिखा यार, पन लोगबाग आतेईच नीं हेंगे.
ओर आते भी होंगे तो अपने निसान ही नी छोड़ते, तो अपन को केसे पता चलेगा की कोन आया गया.
 
ओर ना भीया मेरे को सब पता हेगा कि आप लोग कीया सोच रये हो, येई सोच रये हो ना कि - बेटा खुद्‍तो कईं लिख्‍ता नईं, तेरे वाँ क्यों लीखें. हे ना? अरे यार भीया मेरे हीया से नारद ओर बिलाग खुल जाते हें जेई क्या कम हेगा. अरे यार मेरे हापिस से तो सब कुछ बिलाक कर रखा हेगा यार. मेसेज करने वाला पेज ही नी खुलता हे यार. बिलागर डाट काम तक बंद हेगा.
 
अरे सच्‍ची, गोली नी दे रिया हूँ. क्या? क्या के रये हो? तो बिलाग केसे लिखता हूँ? अरे ईमेल से कन्‍ना पड्‍ता हे यार. सच्‍ची, कसम से.
 
तो भीया मेरे केने से दोईच्‍च काम कल्‍लो यार
पेला तो -
नफ़रत की लाठी तोड़ो,
लालच का खंजर फ़ैंको,
ज़िद के पीछे मत दौड़ो,
तुम प्रेम के पंछी हो देशप्रेमियों,
आपस में प्रेम करो देशप्रेमियों.
और दूसरा -
भरो...माँग मेरी भरो,
करो.. प्यार मुझे करो...!!
 
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मिण्डी: स्‍हेन=सहन, माँग=टिप्पणियाँ. :)
ईक्का: ये मालवी (इंदौरी) हिन्दी हेगी.
दुर्री: जिस्को उपर लिखा समज में नीं आये वो सागर भीया से पुछ ले, उनकेई केने पर मेंने ऐसा लिखा हेगा.
 

Thursday, June 14, 2007

टूटे गिफ़्ट की पैकिंग

एक किस्सा पढ कर याद आया कि हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हो गया था।
 
हुआ ऐसा था कि हमें अपने एक मित्र को किसी एक अवसर पर एक तोहफ़ा देना था.
 
और मित्र हमारा रहता था दूसरे शहर में, सो, गिफ़्ट को कुरियर से ही भेजना बनता था.
 
हमने सोचा, खुब सोचा कि भई क्या दिया जाय, ऐसा क्या दिया जाय कि (ज्यादा) खर्चा भी ना हो और काम भी बन जाये.
 
याने कि सांप भी मर जाये और लाठी भी ना टुटे, यानि कि हिंग लगे ना फ़िटकरी और रंग भी चोखा आये, यानि कि ....अरे! अब और कितनी मिसालें दे यार, कभी तो "थोड़े को बहुत और खत को तार समझा करो" :)
 
हाँ तो साहब हम गये जुना बाजार, और एक अच्छा (यानि कि सस्ता) -सा एक फ़ुलदान खरीदा. दाम के मामले में भी काफ़ी हुज्जत की गई, अरे भई उसमें थोड़ी सी दरार पड़ी हुई थी ना, सो पुरे पैसे थोड़े ना देने बनते थे. कोई लुट मचा रखी है क्या? बाई द वे, दरार बड़ी हल्की सी थी, और गिफ़्ट में "टिका" सकने के हिसाब से फ़िट ही थी. इतना तो कोई भी यकीं कर लेगा कि कुरियर वालों ने ढंग से "हैण्डल" नहीं किया होगा. (अब इतना तो सोचना ही पड़ता है ना?)
 
हाँ तो साहब, हमने अपना सामान लिया और चले घर कि ओर. मगर अपनी किस्मत भी ना...(अब क्या कहें). घर पहुँचते ही, एक छोटी सी ठोकर लगी और वो फ़ुलदान आ गिरा हमारे पैरों में. सही सलामत गिरा हो - ऐसी अपनी किस्मत कहाँ? २-३ बड़े बड़े टुकड़ों में बँट चुका था उसका संसार.
 
फ़िर हमने सोचा, अरे! ऐसा तो कुरियर वालों के यहाँ भी तो हो सकता था. और क्या फ़रक पड़ता अगर हमारे यहाँ से सही सलामत निकल कर भी अपनी मंज़िल-ए-मसकुद तक पहुँचने से पहले ही तड़क जाता तो?? बस! साहब, इस विचार के आते ही, मन से एक बोझ-सा उतर गया. तो यह तय कर लिया कि (टुटे) फ़ुलदान को अच्छे से "गिफ़्ट रैप" कर के कुरियर कर दिया जायेगा, और बाद में (भोलेपन से) यह कह दिया जायेगा कि -
 
अच्छा खासा सा भेजा था मैने इसे,
हो गया ये टुकड़ा गज़ब हो गया.. 
 
समय बचाने के लिये और "प्रोफ़ेश्नल लुक" देने के लिये हमने इसे बजार से करवाना तय किया. तो हमने टुटे हुये फ़ुलदान को एक दुकान में दिया और कहा कि भई इसे जरा अच्छे से पैक तो कर दो. और हाँ, सलामत फ़ुलदान के माप के डब्बे का बोलना तो हम कतई नहीं भूले (समझदार जो हैं).
 
थोड़ा सा दिमाग और लगाया और दुकानदार को कहा कि - दोस्त जरा अच्छे से पैक कर के रखो हम आते हैं एक चक्कर मार के. और हाँ, पहले रंगीन कागज़ में पैक करना फ़िर डब्बे में. और हम निकल लिये (और यकीन कीजिये, यहीं हमसे गलती हो गई - आज तक यही सोचते हैं कि काश पैक होने तक वहीं बैठे रहते).
 
तो साहब हम थोड़ा बजार घुम कर आये, दुकानदार ने अच्छे से पैकिंग कर रखी थी. सो, डब्बा लिया और कुरियर कर दिया. १- २ दिनों बाद कुरियर मिलते ही हमारे दोस्त का फ़ोन आया. और लगे हमें गालियों से नवाज़ने. मैने पुछा -मित्रा..हुआ क्या है? वो बोला स्साले..शरम नहीं आती टुटा हुआ फ़ुलदान तोहफ़े में भेजता है. हम अड़ लिये, बोले, अरे कहाँ? सही सलामत तो भेजा था. फ़िर अपना तुरुप का पत्ता निकाला - कुरियर में टुट गया होगा यार.
 
मगर बाद में जो खुलासा हुआ (बाकी और जो हुआ वो तो यहाँ लिखने जैसा नहीं है) उससे शिक्षा हमने यह ली कि आईंदा ऐसे सारी खुरापात में आखिरी कील तक हम ही ठोकेंगे, और किसी और पर तो बिल्कुल भरोसा नहीं करेंगे.
 
क्या? क्या कहा? आप जानना चाहते हैं कि क्या हुआ था? अरे वो दुकानदार ने डब्बा तो बिल्कुल माप का लिया था, और रंगीन कागज़ में भी पैक किया था, पर पता है? उसने क्या किया था?
 
"हर टुकड़ा एक अलग अलग कागज़ में पैक कर रखा था"
 

Wednesday, June 06, 2007

...ऐ काश....

 - दिल से निकली एक ख्वाहिश -
..ऐ काश...
के कुछ ऐसा होता...
 
इन नये "किसानों" जैसा...
मेरे देश का हर किसान होता...
 
भर पेट खाना मिलता उसको...
एक भी बरतन घर का खाली न होता...
 
हर "दर" पे उसको जाने को मिलता...
"तिरुपति" का तो बिना लाईन दर्शन होता... 
 
गरीबी का उसकी मज़ाक ना उड़ता...
उँचे लोगों में कुछ उसका भी नाम होता..
 
ज़मीन अपनी खुद ही सींचता...
कर्ज़ तले दब कर इतना बेबस ना होता...
 
यूँ "फ़ाँसी" खुद को ना लगाता...
लम्बी ज़िन्दगी पर उसका भी हक होता...
 
इन नये "किसानों" जैसा...
मेरे देश का हर किसान होता...
 
उनका भी नाम अगरचे...
अनिल, आमिर या अमिताभ होता...

- विजय वडनेरे (६ जुन २००७)