Wednesday, June 07, 2006

फ़िर लीजिये, पुनः हाजिर हुये, हाइकू लिये!!

फ़िर पिछली कहानी दोहराई गई है.
बात दरअसल ये है कि 'हाइकू' होती ही इतनी छोटी है कि एक लिखने से मन नही भरता, और ज्यादा लिख दो तो यहाँ छापने का मन करने लगता है.
तो इस बार भी वही हुआ, लिखी तो वहाँ (परिचर्चा) पर थी, मगर फ़िर उठा कर यहाँ धर दी गई है.
 
बताईये तो, कैसी बन पड़ी है!?!
 
हूँ परेशान,
ज़िंदगी की ये राह,
नहीं आसान!!
 
ना कोई पास,
किस की करूँ आस,
दिल उदास!!
 
घर से दूर,
हाँ, हूँ मैं मजबूर,
क्या है कसूर?
 
ऐ मेरे नबी*,
अब तू बता, क्या है
यही जिंदगी?
 
है अजनबी,
लगते अब सभी,
थे पास कभी!!
 
झुमे आँगन,
खिले उठे ये मन,
करो जतन!!
 
हे भगवान!!
सेव मी ओ' जीसस!!
खुदा रहम!!
 
_____________________
*नबी= ईश्वरदूत, भविष्यद्वक्ता
 
 

4 comments:

Jitendra Chaudhary said...

मै तो जे कै रिय्या था,सही जा रहे हो पेलवान जी!

हाइकू पर किताब ही ना लिख दो।अब हाइकू के बुजुर्गवार हो गये हो।

अच्छी लिखीं है,हाइकू मे शब्दों की बाजीगरी के साथ मन के भाव भी उजागर होने चाहिए।पहले से काफ़ी इम्र्प्रूवमेन्ट है।लगे रहो।

विजय वडनेरे said...

जीतू भैय्या: ये "कीड़ा" तो आपका ही लगाया हुआ है. अब जब तक कोई नई चीज नहीं सिखाते, यही झेलनी पडेगी. :)

Sagar Chand Nahar said...

विजय भाई
मैं जे कैणा चाह रा था कि इन सारी कविताओं ( हायकूओं) में विरह जियादा नजर क्युं आरा है??

Anonymous said...

बढ़िया लिखी है ।