९ मई २००६ से १६ जून २००६ तक की कहानी
मैं: आशिक की है बारात जरा झूम के निकलो....
वह: ले के पहला पहला प्यार...भर के आँखों में खुमार..जादूनगरी से...
मैं: ले जायेंगे...ले जायेंगे...दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे...
वह: तुझे जीवन की डोर से बांध लिया है...
मै: कभी कभी मेरे दिल में..खयाल आता है...
वह: मांग के साथ तुम्हारा...मैने...मांग लिया संसार...
मैं: ये हवा ये नदी का किनारा...चाँद तारों का रंगीन इशारा...
वह: आधा है चंद्रमा रात आधी... रह ना जाये तेरी मेरी बात आधी ...
मैं: ऐ जाते हुये लम्हों... जरा ठहरो, जरा ठहरो..मैं भी तो चलता हूँ...
वह: परदेस जाके परदेसिया....भूल ना जाना पिया...
मैं: तेरी जुल्फ़ों से जुदाई तो नहीं मांगी थी...कैद मांगी थी..रिहाई तो नहीं मांगी थी..
वह: मेरे पिया गये रंगून, किया है वहाँ से टेलीफ़ून...
मैं: याद किया दिल ने कहाँ तो तुम, झुमती बहारें कहाँ हो तुम...
वह: आजा रे...अब मेरा दिल पुकारा...रो रो के गम भी हारा...
मैं: तू कहाँ...ये बता...इस नशीली रात में...माने ना मेरा दिल दिवाना..हो...
वह: ओ माझी...ओ माझी..ओ...मेरे साजन हैं उस पार, मैं इस पार...अबकी बार...ले चल पार...
मैं: आयेगी वो आयेगी...दौड़ी चली आयेगी...सुन के मेरी.. आवाज़ आयेगी...
वह: पालकी पे होके सवार चली रे...मैं तो अपने साजन के पास चली रे...
मैं: आने वाली है...मिलन की घड़ी...
वह: कैसे कटे दिन...कैसे कटी रातें..पुछो ना साजना...जुदाई की बातें...
मैं: बहारों फ़ूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है...
वह: वो चाँद खिला, ये तारे हँसे...ये रात अजब मतवाली है...
मै: आके तेरी बाहों में...हर शाम लगे सिंदूरी...
वह: झिलमिल सितारों का आँगन होगा, रिमझिम बरसता सावन होगा...
मैं: तू मेरे सामने...मैं तेरे सामने...तुझको देखूँ के प्यार करूँ...
वह: ये रात भीगी...ये मस्त फ़िजायें...सोने भी नहीं देता मौसम का ये नजारा...
हम: जनमों के साथी, दीया और बाती,..हम साथ-साथ हैं..
7 comments:
लगे रहो इण्डिया, लगे रहो...... ;-)
आग लगी है तन में और मन में...
फोर्स्ड सन्यासी के पास ऐसे गीत गाते रहने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं..
हम गम की इन घड़ियों में आपके साथ नहीं हैं...
आपको अकेले ही भुगतना होगा.
इस बात से तसल्ली कर लें कि आग उधर भी लगी तो होगी.. :)
रवि भैय्ये: आपने गानों के बोलों पर गौर नहीं किया लगता है...!!
अरे दु:ख भरे दिन बीते रे भैय्या बीते रे भैय्या. याने, हमारे विरह के दिन खत्म (और जिबह/जिरह के शुरु). याने, और तफ़्सील में, मेडम अब हमारे पास आ चुकी हैं पिछले शनिवार को.
लगता है, रतलामी जी ने बोर होकर पूरा पढे़ बिना ही टिप्पणी चिपका दी। :)
हमने पूरा पढा़ (झेला):)
अगले सप्ताह हम भी निकल रहे हैं, देखते हैं...
अब कुछ दिनों के बाद विजय भाई जे गाने गुनगुनाते नज़र आयेंगे जा फ़िर अपने चिठ्ठे पर लिखेंगे
“..मेरे घर आई एक नन्हीं कली…”
जा फ़िर-
“इक बात सुनी है चाचाजी, बतलाने वाली है,
घर में एक अनोखी चीज आने वाली है….”
जा के-
“..मांगी थी इक दुआ जो कुबुल हो गई,
कीमत हमारे प्यार की वसूल हो गई….”
अब ये ना गाना पड़े- झूठ बोले कौआ काटे.. मैं मायके चली जाउंगी तुम देखते रहिओ..
खूब गुदगुदाते हो.. धन्यवाद
अमां एक गाना तो भूल ही गए :
लोग मुझे क्यों देते है ताना...हाँ मै हूँ बीबी का दीवाना...जमाना तो है नौकर बीबी का।
हीही..
(बुजुर्गो के अनुभव से तो सबक लो)
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