Wednesday, April 26, 2006

Jewel in the palace - चांगजिंग

मैं जब अपनी नौकरी के चलते सिंगापुर पहुँचा था तो पहले दो हफ़्ते तक तो कंपनी के गेस्ट हाउस में रुका था.
शाम को ऑफ़िस से आने के बाद और खाना खाने के वक्त तक रात हो जाती थी और फ़िर कुछ और काम भी नही रह जाता था, तो बस, टी.वी. के सामने बैठ जाया करते थे.
 
दूसरे हफ़्ते से ही एक नया चयनीज टी.वी. श्रंखला शुरु हुई, नाम था - "ता चान्गजिन्ग".
वो तो बाद में पता चला कि हम गलत सुनते थे. नई जगह, नई भाषा, अब हमें तो पहले यही सुनाई देता था यार. और तो और बाद में पता चला कि वो "चायनीज" भी नही है, कोरियन है.
 
बकौल जय (अमिताभ बच्चन इन शोले - "मुझे तो सब पुलिसवालों की सुरतें एक जैसी नजर आती है") -  "मुझे तो सब ना समझ में आने वाली भाषायें चायनीज सुनाई देती है"
 
हाँ, तो, जब श्रंखला चायनीज थी (याने समझते थे) तो इस उम्मीद से बैठे देखते रहते थे कि अब तो "ही - हा - ईय्या" याने कि चायनीज ढिशुम ढिशुम शुरु होगा. और मुझे शुरु से वैसी मार पीट देखना पसन्द है. उसपर चायनीज मारपीट जिसमें लोगबाग उड उड कर मारते हैं, वाह! क्या बात है.
 
हम लोग तो दोस्तों के बीच इन चायनीज श्रंखलाओं को - चीनी अलिफ़ लैला, या चीनी बिक्रम बेताल, या फ़िर चीनी चन्द्रकांता कह कर मजे ले ले कर देखते हैं. या फ़िर जो आजकल की तथाकथित फ़ैमिली श्रंखलाएं होती हैं उन्हे, "लोकल कहानी घर घर की" जैसे नाम दे कर झेल लिया करते हैं. "भाषा" बीच में से हटा दी जाय तो अपने भारतीय और विदेशी टी.वी. कार्यक्रम सब एक बराबर हो जाते हैं.
 
तो जिस श्रंखला की बात हम यहाँ कर रहे हैं उसका असली नाम है: Daejanggeum (Dae Chang jing), और उसका अंग्रेजी जालस्थल है यहाँ और यदि किसी को कोरियन आती हो तो यहाँ  देखिये.
 
Dae Jang geum का मतलब है - Great Jang geum, यहाँ Jang geum एक पात्र का नाम है, और जैसा कि मुझे पता चला है, यह एक ऐतिहासिक और वास्तविक पात्र पर आधारित है.
 
ये एक कोरियन ऐतिहासिक गाथा  है. एक ऐसे पात्र की कथा जो स्त्री होते हुये भी एक साम्राज्य, जोसियॉन राजवंश, के सम्राट की मुख्य और व्यक्तिगत चिकित्सक बनती है. वह भी तब जबकि स्त्रियों के लिये उस समय रसोई से बेहतर और कोई जगह नहीं थी खुद को व्यस्त रखने के लिये और खुद को साबित करने के लिये. बचपन में ही अनाथ होने के बावजूद महल के रसोईघर में सहायक रसोईया बनने से लेकर सम्राट की व्यक्तिगत चिकित्सक बनने तक की राह आसान ना थी, यह कहना जरूरी नहीं है.
 
इसमें कथा में, राजवंश के लिये जो रसोई बनती है,  वहाँ क्या क्या होता है उसका वर्णन है, जिसमें पाककला प्रमुख रुप से उकेरी गई है. तरह तरह के भोज्य पदार्थ, उनके चिकित्सकीय महत्व को कई बार उल्लेखित किया गया है. अलग अलग स्तर के रसोईये होते है, उनके सहायक होते है, विशेषज्ञ होते है. फ़िर जैसा कि होता है, "राजनीति" हर कहीं व्याप्त है. हर कोई एक दूसरे की टांग खींचने के लिये तत्पर. उच्च पद के लिये दौड. जायज नाजायज तरीकों का इस्तेमाल. अपने पद का उचित-अनुचित उपयोग-दुरुपयोग, प्रेम त्रिकोण...!! याने कि भरपेट मसाला!! मगर कहीं भी अति नहीं लगता. सारा तारतम्य एकदम फ़िट है.  कथा प्रवाह कहीं भी धीमा नहीं पडता, और मन लगा रहता है.
 
बकौल वीरू (धर्मेन्द्र)- इस कहानी में इमोशन है, ड्रामा है और एक्शन (थोडा थोडा) भी है. और हाँ,  हास्य ना हो तो क्या मजा, वह भी है.
 
अब आप कहेंगे कि बेटा विजय, तुम्हें तो ना चायनीज आती है और ना ही कोरियन फ़िर क्या बस फ़ोटू देखते हो? अरे यार, अंग्रेजी सबटाईटल भी तो आते हैं. अब वो तो हम हैं जो, देखने और पढने का काम एक साथ, और उसी रफ़्तार से कर लेते हैं. एक आँख देखती है और दूसरी से डायलाग्स पढते चलते हैं.
 
अब तक की कहानी में मुख्य पात्र (चांगजिंग) की परामर्शदाता (प्रशिक्षक) काफ़ी जद्दोजहद के बाद मुख्य रसोईघर की मुख्य रसोईया (Top Lady) बनी है. याने कि अभी तो दिल्ली काफ़ी दूर है.
 
यह पहले कोरियन भाषा में बना है, फ़िर कई भाषाओं में डब हो कर आजकल चायनीज भाषा में सिंगापुर में प्रसारित हो रहा है.
 
शुरुआत में तो बस समय व्यतीत करने की गरज से देखते थे, पर अब लगता है कि इसकी आदत पड़ गई है. इसकी बदौलत फ़टाफ़ट रात का खाना खा कर ठीक १० बजे टी.वी. के सामने जम कर बैठ जाते है और १ घंटे तक वहीं जमे रहते हैं. यह सीरियल है भी काफ़ी लोकप्रिय. इसकी लोकप्रियता का अंदाज इस ब्लाग से लगाईये. इस पूरे सिरीयल की डीवीडी भी विक्रय हेतु उपल्ब्ध है.
 
निर्देशन और अभिनय की दृष्टि से भी काफ़ी दमदार प्रस्तुति है, और मुख्य पात्र "ली यँग ऐ (Lee Young Ae)" बहुत खुबसूरत है कम से कम मुझे तो लगती है.
 
अभी कल ही मैने इसका शीर्षक संगीत रिकार्ड कर लिया है जो मुझे काफ़ी पसंद है. हालांकि एक भी शब्द पल्ले नहीं पडता, मगर, कहते हैं ना, संगीत की कोई भाषा नहीं होती, यह बात सौ टक्के चरितार्थ होती है. काफ़ी कर्णप्रिय है इसका  शीर्षक संगीत ( सुनिये यहाँ से).
 
हालाँकि अब तो अपने खुद के (किराये के) घर में आ चुके हैं और भला हो मकान मालिक का कि जो घर में एक अदद टी.वी. रख छोडा है, याने कि "चांगजिंग" देखना बदस्तुर जारी है.

Monday, April 24, 2006

आरक्षण, एक नई सोच!

(एक फ़ार्वर्डेड ईमेल का हिन्दी रुपांतरण)
 
प्रिय मित्रों,
 
हमें हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी का और उनके केबीनेट के सभी मंत्रीजनों का तहेदिल से शुक्रिया अदा करना चाहिये जो उन्होने नौकरी में आरक्षण की बात उठाई.
 
हमें उनके इस कदम का स्वागत करते हुये अपना समर्थन देना चाहिये. और हो सके तो इस आरक्षण को जल्द से जल्द लागू करवाने हेतु जो भी बन पडे सब करना चाहिये.
 
साथ ही साथ, हमें हर फ़ील्ड में आरक्षण लागू हो ऐसी व्यवस्था भी करनी चाहिये. यहाँ तक की खेंलों में भी.
 
१. अपनी टीम में १० प्रतिशत स्थान अपने मुसलमान भाईयों का होना चाहिये.
२. ३० प्रतिशत अ.जा, अ.ज.जा, एवं अ.पि.व. के लिये.
३. बाकी बचे में सामान्य, भू.पू.सै. इत्यादि.
 
यही नही, क्रिकेट के नियमादि भी आरक्षण के अनुसार बदलने चाहिये:
१. क्रिकेट का मैदान आरक्षित वर्ग के लिये कम करना होगा.
२. किसी भी आरक्षित खिलाडी द्वारा मारा गया चौक्का - छक्के में, एवं छक्का - अठ्ठे में तब्दील होगा.
३. किसी भी आरक्षित खिलाडी द्वारा ६० रन पूरे करने पर ही उसे शतक मान लिया जाना चाहिये.
४. अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड से ये नियम लागू होंगे कि शोऐब अख्तर जैसे तेज गेंदबाज हमारे आरक्षित खिलाडियों को तेज गेंद नहीं फ़ैकेंगे.
५. तेज गेंदबाजी की अतिसीमा ८० कि.मी.प्र.घ. होगी, इससे तेज गेंद अमान्य करार दी जायेगी.
 
भारत को अपनी शक्ति एवं वरीयता का लाभ उठाते हुये ओलंपिक में भी आरक्षण लागू करवाना चाहिये:
१. १०० मी. की दौड में अपने आरक्षित खिलाडी द्वारा ८० मी. ही पूरे करने पर दौड पूरी मान ली जानी चाहिये.
 
हवाई जहाज कम्पनी में भी आरक्षण होना चाहिये:
१. पायलटों की भर्ती में आरक्षण होना चाहिये, और उन्हे हमारे माननीय नेतागणों के लाने ले जाने हेतु अनुबंधित किया जाना चाहिये.
 
चिकित्सा क्षेत्र में:
१. हमारे माननीय नेतागणों के चिकित्सा, इलाज हेतु सिर्फ़ आरक्षित वर्ग के ही डाक्टर, कंपाउंडर नर्स इत्यादि को अनुमति दी जानी चाहिये.
 
हमें हमारे भारत को और आगे ले जाने के लिये नये नये विचार सोचने चाहिये, तभी हम तरक्की कर पायेंगे, और अपने भारत पर गर्व कर पायेंगे.
 
अगर आपके पास और विचार हो तो अवश्य प्रकट करें.
 
जय हिन्द!!!
 

Sunday, April 16, 2006

मन व्यथित है

अगर मंदिर या मुर्तियाँ तोडने से ही किसी धर्म को कोई नुकसान पहुँचा सकता होता तो, हिन्दू धर्म कब का इतिहास के पन्नों में दफ़न हो गया होता.
 
आखिर इन्हें क्या चाहिये?
 
ये डरपोक लोग अपनी बात तो ढंग से सामने रख नहीं सकते, और इस तरह से कायराना हरकत कर के क्या समझते हैं कि मैदान मार लिया?
 
बेजुबान मुर्तियों को तोड कर इन्हें क्या मानसिक संतुष्टि मिल जाती है?
 
अभी तक तो इस शर्मनाक कार्यवाई में किसी समुदाय विशेष का हाथ जाहिर नहीं हुआ है, मगर मुझे यकीं है कि किसी और के बारे में सोचने की जरुरत भी नहीं है.
 
क्योंकि संसार के किसी भी कोने में चले जाओ, उन लोगों की मानसिकता तो वही रहती है.
 
"मैं" के आगे कभी कुछ सोचा ही नही होगा. "हम" तो उनके शब्दकोष में है ही नहीं.
अरे जब आपस में ही प्यार से नहीं रह पाते तो तीसरे के लिये क्या खाक सोचेंगे.
 
इस शर्मनाक कृत्य को देखकर और इसी तरह की पिछली कई घटनाओं को याद कर तथा अभी भी हिन्दू समुदाय की चुप्पी को देखकर मुझे एक कहानी याद आ रही है-
 
एक गांव था. उस गांव के लोग पीने के पानी के लिये दो कुँवों पर निर्भर थे. एक तो बिल्कुल ही पास में था, और दुसरा काफ़ी दुर था.
एक दिन कहीं से एक जहरीला सांप गांव के पास वाले कुंऐ के पास आ गया और वहीं रहने लगा.
जो भी उस कुंऐ के पास पानी लेने जाता था तो सांप उसे डस लेता था. इसके डर से, गांव वालों ने उस कुंऐ पर जाना छोड दिया था, और पानी लेने दूर के कुंऐ पर जाने लगे थे.
इससे काफ़ी समय और श्रम नष्ट होता था.
 
एक दिन उस गांव में एक साधु आया.
गांव वालों ने उसे सांप के बारे में बताया. साधु सांप के पास गया और उसे अहिंसा का उपदेश दिया कि दूसरों का नुकसान करना, अहित करना बुरी बात है इत्यादि.
जिसका सांप पर तुरंत प्रभाव पडा और उसने लोगों को डसना छोड दिया.
 
जब लोगों को यह पता चला तो काफ़ी खुश हुये. उनमें से कुछ जोशीले लोग अपनी बहादूरी दिखाने के लिये सांप को परेशान भी करने लगे.
जब सांप ने डसना छोड दिया तो लोगों ने उससे डरन भी छोड दिया.
बच्चे तक आते जाते सांप को परेशान करते, उसे पत्थर मारते. मगर सांप तो बदल चुका था, उसने अहिंसा का रास्ता अपना लिया था.
इतना परेशान होने के बावजूद वह अपना आपा नही खोता था.
 
कुछ दिनों बाद वही साधु महाराज फ़िर गांव में आये. और फ़िर उस सांप के हालचाल देखने उसके पास गये.
उसे घायल और कष्ट में देखकर काफ़ी दुखी हुये.
तब उन्होने सांप को फ़िर उपदेश दिया-
 
"दूसरों को नुकसान पहुँचाना तो बुरी बात है ही, मगर खुद का बचाव ना करना उससे भी बुरी बात है.
तुम भले ही लोगों को डसो मत, परन्तु, कोई तुम्हें परेशान करने आये तो सिर्फ़ सहते मत रहो. कम से कम फ़ुँफ़कार के उसे दूर तो भगा सकते हो."
 
तब से वो सांप डसता तो नहीं है, मगर जब कोई उसके पास उसे परेशान करने जाता है तो फ़ुँफ़कार के उसे भगा देता है.
 
अब मुझे ऐसा लगता है कि हिन्दू भी वही सांप हो गया है, वैसा सांप जिसने अहिंसा का पाठ तो पढ लिया है, मगर खुद की आबरू की कीमत पर.
आते जाते कोई ना कोई हमें नुकसान पहुँचा देता है, मगर हम "अहिंसा" को ले के बैठे रहते है.
 
जब तक हम खुद की रक्षा करने नहीं उठेंगे, तब तक हम यूँही नुकसान उठाते रहेंगे.
 
मैंने कई लोगो के चिठ्ठों पर यह प्रश्न देखा है कि जिस तरह दूसरे समुदाय वाले "एकजूट" हैं वैसे हिन्दू क्यों नहीं है?
 
इस बात का उत्तर एक बहुत आसान से उदहरण से समझाना चाहुंगा, जो मैंने और शायद आपने भी बहुधा गौर किया होगा, कि - कई लोग धुम्रपान या गुटखे वगैरह के आदि होते हैं.
उस तरह के जाने अनजाने लोग भी अपने व्यसन की वस्तुयें आपस में "शेयर" कर लेते हैं. भले ही एक दूसरे से अपरिचित हों, मगर कभी, सिगरेट, लाईटर, या गुटखा मांगने में किसी को शर्म नहीं आती. और ना ही देने वाला कुछ गलत सोचता है. मगर अधिकतर लोग अपना पानी, या शीतलपेय या दूसरी अन्य खाने की वस्तुएं explicitly ना तो मांगते हैं, और ना ही देते होंगे.
 
बात हो सकता है कि छोटी सी हो, मगर मैं अपनी समझ से कहता हूँ कि- जो लोग गलत होते हैं वे अपनी गलती में सबको शामिल करना चाहते हैं, और अपनी तरह के लोगों को सहारा देते हैं, ताकि कोई सिर्फ़ उनपर उंगली ना उठा सके. जो कि "सही" तरफ़ वाले नहीं करते, या शायद करना नहीं चाहते. ये भी हो सकता है कि शायद उन्हे इसकी जरुरत ही महसूस नही होती होगी.
 
क्या किसी के पास है जवाब इस बात का कि
 
क्यों टूटते सिर्फ़ मंदिर ही हैं?
क्यों सिर्फ़ मंदिरों में ही गोलियां चलती है?
क्यों सिर्फ़ मंदिर में ही लोग मरते हैं?
 
अंत में मेरा तो यही कहना है कि- जब तक न दो उन्हे सजा,  तब तक आयेगा नहीं मजा.

Thursday, April 13, 2006

फ़ोरम के नाम चुनने की प्रक्रिया

जैसी कि आजकल हवा चल रही है, अपने सभी ब्लागर बंधु एक "नाम" के पीछे पडे हुये हैं.
 
नाम भी कोई ऐसा वैसा नही, हिन्दी के एक "फ़ोरम" का नाम.
 
एक भाई ने यह महान "रिस्पोन्सिबिलिटी" उठाते हुये सबको "छू" कर दिया है कि "नाम सुझाओ", और बाकी के भाई लोग लग पडे हैं "नाम सुझाने".
 
लोग बाग भी कम नही हैं. रख रख के दिये जा रहे हैं, दिये नही, फ़ैके जा रहे हैं.
 
लो, ये लो, ये भी लो, और ये भी लो.
 
कुछ भाई झटके मार मार के टिका रहे हैं. छोटे छोटे झुंड में. पहली बार ४ भेजते हैं, दूसरी बार ६, तीसरी बार ३ इत्यादि. एंड द प्रोसेस गोस ऑन..
 
कुछ एकसाथ ढेर पे ढेर दे रहे हैं.
 
कोई तो कह रहा है  कि मैं आज नहीं रविवार को दुँगा. जैसे कि अभी खाना तैयार नही है, पका रहा हूँ, पक जायेंगे तब लाउंगा.
 
दीगर बात यह है कि - सारा का सारा अंतर्जाल छान लिया गया है, सारे अंग्रेजी नामों का हिन्दीकरण हो चुका है. यहाँ तक कि रशियन, जर्मन और चायनीज नाम भी लिस्ट में हो सकते हैं.
 
अब किसी को यह बात नहीं पता कि इतने सारे नामों में से "एक नाम" कैसे चुना जायेगा.
 
मुझे कुछ विश्वस्त सूत्रों इस प्रक्रिया के बारे में कुछ कुछ ज्ञात हुआ है, और वही मैं यहाँ छाप रहा हूँ. आगे और नाम सुझाने वालों से निवेदन है कि निम्न प्रक्रिया को मद्देनजर रखते हुये ही नाम "सुझायें".
 
यह विधि नीचे दी गई प्रक्रियाओं के विशेष मिश्रण से बनाई जा रही है.
 
१. सारे नामों की चिट बना कर अपने सामने बिछा ली जायेगी और फ़िर "अक्कड बक्कड" कर के उनके उपर हाथ फ़िराया जायेगा, जहाँ "अक्कड बक्कड" खत्म होगा और हाथ जिस चिट के उपर होगा, वही नाम "सिलेक्ट" कर लिया जायेगा.
 
२. "अक्कड बक्कड"  की जगह पर आज की तारिख का कोई प्रचलित फ़िल्मी गाना भी चला सकते हैं. (म्युझिकल चेयर की भांति).
 
३. सारे नामों की चिट बना कर एक बडे से बर्तन में इकठ्ठी कर ली जायेगी, और फ़िर उसे खुब अच्छी तरह से मिला कर, किसी बच्चे के हाथों से उसमें से एक चिट निकलवाई जायेगी.
 
४. अगर नाम "शार्ट एंड स्वीट" निकले तो हो सकता है कि बच्चे की जगह कम कपडों में कोई फ़िल्म अभिनेत्री रही हो.
 
५. सारे नामों की चिट एक पंक्ति में रखी जायेगी और अपने चौराहे के "जोतिस" (ज्योतिषी) बाबा को बुला कर, उनके "रामलाल" (तोते का नाम है) से एक पर्ची छंटवाई जायेगी.
 
६. एक 'लकी' सिक्का ले कर, तब तक चित-पट किया जायेगा जब तक कि सारी चिटें "एलिमिनेट" होते होते सिर्फ़ एक चिट ना बच जाये.
 
७. सिक्के की जगह "सांप सीढी' खेलने वाला पाँसा भी लिया जा सकता है.
 
८. कुवैत से एक मीटर, ऊप्स सॉरी, एक किलो रेत मंगवाई जायेगी, और सारी चिटों को जमीन पर बिछा कर उनके उपर वो रेत फ़ैंकी जायेगी. जिस चिट के उपर रेत के सर्वाधिक कण होंगे, उसे "सिलेक्ट" कर लिया जायेगा.
 
९. सारी चिटों को तोला जायेगा, जिसका वजन सबसे ज्यादा होगा उसी को "सिलेक्ट" किया जायेगा. आखिर नाम भी तो वजनदार होगा ना.
 
१०. अंतिम उपाय, एक नया ब्लाग बना कर उस पर सारे के सारे नाम लिख दिये जायेंगे, फ़िर ब्लाग पर आने वालों से उन नामों पर वोट करने की प्रार्थना की जायेगी, वोटिंग के लिये ब्लाग पर ही सुविधा होगी. जो बंधु ब्लाग पर नही आते, उनके लिये एक मोबाईल नम्बर भी दिया जायेगा. जिसपर वे एस.एम.एस कर अपना वोट दे सकते हैं. एक तय समय के बाद सारे वोटों को गिन कर "ब्लागायडोल नाम" चुना जायेगा.
 
 

Saturday, April 08, 2006

जरुरत क्या है... (जगजीत सिंह)

पेश है मेरी पसंद की एक और गजल,
जगजीत सिंह जी के किसी एल्बम से.
उम्मीद करता हूँ, आपको भी पसंद आयेगी.
 
इस गजल का तीसरा शेर मुझे खासतौर से पसंद है, जो, 
आज की इस मतलबपरस्ती की दुनिया में,
अक्सर अपने आसपास महसूस करता हूँ.
 
बे-सबब बात बढाने की जरुरत क्या है,
हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
बे-सबब बात बढाने की जरुरत क्या है,
 
रंग आँखो के लिये, बू है दिमागों के लिये,
रंग आँखो के लिये, बू है दिमागों के लिये,
फ़ूल को हाथ लगाने की जरुरत क्या है!
...हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
 
तेरा कूचा, तेरा दर, तेरी गली काफ़ी है,
तेरा कूचा, तेरा दर, तेरी गली काफ़ी है,
बेठिकानों को, ठिकाने की जरुरत क्या है!
..हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
 
दिल से मिलने की तमन्ना ही नहीं जब दिल में,
दिल से मिलने की तमन्ना ही नहीं जब दिल में,
हाथ से हाथ, मिलाने की जरुरत क्या है!
..हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
 
बेसबब बात बढाने की जरुरत क्या है,
हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
 
टीप: अंतर्जाल पर ढुँढने की कोशिश नहीं की, कारण-की इच्छा नहीं हुई. जितनी और जैसी याद थी लिख दी है, अगर कुछ गलती हो तो क्षमा चाहुंगा.

Friday, April 07, 2006

समझते थे मगर फ़िर भी...(पार्ट २)

समझते थे मगर फ़िर भी ना खुद को संभाला हम ने,
समझते थे मगर फ़िर भी ना खुद को संभाला हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
कोई पाठक हमारे ब्लाग पर आता भी तो क्या आता,
जमा कर रखा है साहित्य की जगह भरसक  कुडा हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
युँ ही टीप टीप कर लिखना हमें मंजुर है लेकिन,
कभी खुद का दिमाग भी तो ना चलाया हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
हम उस पोस्ट को काश इक बार 'एडिट' कर पाते ऐ 'विजय',
क्योंकि ' वाली' की जगह 'गालिब'  ही लिख डाला हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
अनुप भैय्या ने किया ईशारा और बताया खुल के भी हमको,
मगर फ़िर भी ना अपना पोस्ट सुधारा हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
क्यों दुरुस्त नही कर पाये हम यह गलती अपनी,
यही 'सफ़ाई' देने के लिये इतना और लिख डाला हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
इस बेसिरपैर की गजल को कोई गाने को ना कह दे हमको,
इसलिये अपना रिकार्डर ही खराब कर डाला हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
अब आप हमको ढुँढेंगे और फ़िर फ़ोडेंगे शायद सर हमारा,
बचने के लिये अभी से हेलमेट पहन लिया हमने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
ये भी हो सकता है कि किसी छत से ढकेला जाये हमको,
तभी तो एक उडनतश्तरी का भी बन्दोबस्त है कर रखा हमने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
कोई टोना टोटका भी कभी हम पर ट्राय तक मत करना,
पहले ही से हनुमान चालीसा अपने ब्लाग पर है लिखा हमने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हम ने!!
 
समझते थे मगर फ़िर भी ना खुद को संभाला हम ने,
लिखने के जोश में कर डाला है घोटाला हमने!!

Thursday, April 06, 2006

झेलिये....

 
कल परसों पता नहीं किस पिनक में हमने कहीं से एक गजल के बोल ढुँढ कर यहाँ  लिख छोडे थे.
 
हमारे एक मित्र श्रीमान रा० च० मिश्र जी ने कहा, कि भैय्या लिखा तो है ही, सुना भी देते तो और अच्छा होता.
 
यकीं मानिये, हम गलत नहीं समझे.
 
हमने तो पुरी इमानदारी से कोशिश की थी वो गजल  ढुँढने की, मगर अब नहीं मिली तो क्या अपने दोस्त को निराश कर देते?
 
नहीं, बिल्कुल नहीं.
 
उनके लिये, खास उनके लिये, हमने वो गजल "खुद" गाई. इसे कहते हैं यारी निभाना. है कि नहीं?
 
तो लीजिये, आप भी झेलिये, सॉरी, आई मीन, सुनिये, जगजीत सिंह जी की वो गजल हमारी दिलकश, दिलबहार, दिलपसंद, दिलफ़लाना, दिलढिकाना आवाज में..
 
 
नोट १: किसी को इंडियन आयडल वालों का नम्बर पता हो तो कृपया उन्हें मेरे ब्लाग का पता बता दिजीयेगा, और फ़िर मेरे लिये sms भी कीजियेगा.
 
नोट २: गालियाँ, सडे अण्डे, टमाटर, चप्पल जूते (पेयर में) कृपा करके श्रीमान रा० च० मिश्र जी के पते पर फ़ारवर्ड करें.

किसी ने जादू टोना किया है!

 
मेंरे ब्लागस्पाट के अकाउंट पर लगता है किसी ने जादू टोना किया है.
 
लागिन होता है, सेटिंग्स वाले सारे पन्ने खुलते एवं चलते हैं, बस्स वो पोस्ट करने वाला पन्ना ही नहीं खुलता.
 
कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं कुछ ज्यादा ही लिख बैठा हूँ?
 
अरे नहीं यार, झुठ नहीं बोल रहा.
 
क्या कहा? ये पोस्ट कहाँ से किया?
 
अरे यार, ब्लागस्पाट में एक Email वाली सेटिंग है, जहाँ ब्लागस्पाट आपको एक सुविधा देता है जिससे आप एक विशेष email पर अपना पोस्ट प्रेषित कर सकते हैं, और वह email  आपके ब्लाग पर पोस्ट हो जाता है. याने "हींग लगे ना फ़िटकरी, और रंग भी चोखा आये".
 
है ना सही!!?!!
 
तो मैं आजकल Gmail से ही पोस्ट कर रहा हूँ इसके rich text editor की सहायता से.
हाँ मैं, पोस्ट करने के बाद उसे संपादित (एडिट) नहीं कर पा रहा हूँ. क्योंकि संपादन हेतु तो ब्लागस्पाट में ही लागिन करना होगा.
 
तो जब तक ये दुविधा दुर नहीं होती तब तक :-
 
"बुरी नजर वाले, तेरे बच्चे जियें, और बडे होकर तेरा ही खून पीयें"

Tuesday, April 04, 2006

समझते थे मगर फ़िर भी...(जगजीत सिंह)

वैसे तो जगजीत सिंह जी की सारी गजलें बहुत अच्छी होती हैं,
बोल और आवाज, दोनो दिल की गहराईयों तक उतरते हैं।

मुझे उनमें से कुछ-एक, विशेष रुप से पसन्द हैं।
पेश-ए-खिदमत है उन्ही चुनिन्दा गजलों में से एक:

समझते थे, मगर फ़िर भी न रखी दुरियाँ हमने,
चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।

कोई तितली हमारे पास, आती भी तो क्या आती,
सजाए उम्र भर कागज के फ़ुल-ओ-पत्तियाँ हमने,
..चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।

युँ ही घुट घुट के मर जाना हमें मँजुर था लेकिन,
किसी कमजर्फ़ पर जाहिर ना की मजबुरियाँ हमनें,
..चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।

हम उस महफ़िल में बस इक बार सच बोले थे ऐ गालिब,
जुबां पर उम्र भर महसूस की चिंगारियाँ हमने,
..चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।

समझते थे, मगर फ़िर भी न रखी दुरियाँ हमने,
चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।
 
है ना बढिया?