Sunday, April 16, 2006

मन व्यथित है

अगर मंदिर या मुर्तियाँ तोडने से ही किसी धर्म को कोई नुकसान पहुँचा सकता होता तो, हिन्दू धर्म कब का इतिहास के पन्नों में दफ़न हो गया होता.
 
आखिर इन्हें क्या चाहिये?
 
ये डरपोक लोग अपनी बात तो ढंग से सामने रख नहीं सकते, और इस तरह से कायराना हरकत कर के क्या समझते हैं कि मैदान मार लिया?
 
बेजुबान मुर्तियों को तोड कर इन्हें क्या मानसिक संतुष्टि मिल जाती है?
 
अभी तक तो इस शर्मनाक कार्यवाई में किसी समुदाय विशेष का हाथ जाहिर नहीं हुआ है, मगर मुझे यकीं है कि किसी और के बारे में सोचने की जरुरत भी नहीं है.
 
क्योंकि संसार के किसी भी कोने में चले जाओ, उन लोगों की मानसिकता तो वही रहती है.
 
"मैं" के आगे कभी कुछ सोचा ही नही होगा. "हम" तो उनके शब्दकोष में है ही नहीं.
अरे जब आपस में ही प्यार से नहीं रह पाते तो तीसरे के लिये क्या खाक सोचेंगे.
 
इस शर्मनाक कृत्य को देखकर और इसी तरह की पिछली कई घटनाओं को याद कर तथा अभी भी हिन्दू समुदाय की चुप्पी को देखकर मुझे एक कहानी याद आ रही है-
 
एक गांव था. उस गांव के लोग पीने के पानी के लिये दो कुँवों पर निर्भर थे. एक तो बिल्कुल ही पास में था, और दुसरा काफ़ी दुर था.
एक दिन कहीं से एक जहरीला सांप गांव के पास वाले कुंऐ के पास आ गया और वहीं रहने लगा.
जो भी उस कुंऐ के पास पानी लेने जाता था तो सांप उसे डस लेता था. इसके डर से, गांव वालों ने उस कुंऐ पर जाना छोड दिया था, और पानी लेने दूर के कुंऐ पर जाने लगे थे.
इससे काफ़ी समय और श्रम नष्ट होता था.
 
एक दिन उस गांव में एक साधु आया.
गांव वालों ने उसे सांप के बारे में बताया. साधु सांप के पास गया और उसे अहिंसा का उपदेश दिया कि दूसरों का नुकसान करना, अहित करना बुरी बात है इत्यादि.
जिसका सांप पर तुरंत प्रभाव पडा और उसने लोगों को डसना छोड दिया.
 
जब लोगों को यह पता चला तो काफ़ी खुश हुये. उनमें से कुछ जोशीले लोग अपनी बहादूरी दिखाने के लिये सांप को परेशान भी करने लगे.
जब सांप ने डसना छोड दिया तो लोगों ने उससे डरन भी छोड दिया.
बच्चे तक आते जाते सांप को परेशान करते, उसे पत्थर मारते. मगर सांप तो बदल चुका था, उसने अहिंसा का रास्ता अपना लिया था.
इतना परेशान होने के बावजूद वह अपना आपा नही खोता था.
 
कुछ दिनों बाद वही साधु महाराज फ़िर गांव में आये. और फ़िर उस सांप के हालचाल देखने उसके पास गये.
उसे घायल और कष्ट में देखकर काफ़ी दुखी हुये.
तब उन्होने सांप को फ़िर उपदेश दिया-
 
"दूसरों को नुकसान पहुँचाना तो बुरी बात है ही, मगर खुद का बचाव ना करना उससे भी बुरी बात है.
तुम भले ही लोगों को डसो मत, परन्तु, कोई तुम्हें परेशान करने आये तो सिर्फ़ सहते मत रहो. कम से कम फ़ुँफ़कार के उसे दूर तो भगा सकते हो."
 
तब से वो सांप डसता तो नहीं है, मगर जब कोई उसके पास उसे परेशान करने जाता है तो फ़ुँफ़कार के उसे भगा देता है.
 
अब मुझे ऐसा लगता है कि हिन्दू भी वही सांप हो गया है, वैसा सांप जिसने अहिंसा का पाठ तो पढ लिया है, मगर खुद की आबरू की कीमत पर.
आते जाते कोई ना कोई हमें नुकसान पहुँचा देता है, मगर हम "अहिंसा" को ले के बैठे रहते है.
 
जब तक हम खुद की रक्षा करने नहीं उठेंगे, तब तक हम यूँही नुकसान उठाते रहेंगे.
 
मैंने कई लोगो के चिठ्ठों पर यह प्रश्न देखा है कि जिस तरह दूसरे समुदाय वाले "एकजूट" हैं वैसे हिन्दू क्यों नहीं है?
 
इस बात का उत्तर एक बहुत आसान से उदहरण से समझाना चाहुंगा, जो मैंने और शायद आपने भी बहुधा गौर किया होगा, कि - कई लोग धुम्रपान या गुटखे वगैरह के आदि होते हैं.
उस तरह के जाने अनजाने लोग भी अपने व्यसन की वस्तुयें आपस में "शेयर" कर लेते हैं. भले ही एक दूसरे से अपरिचित हों, मगर कभी, सिगरेट, लाईटर, या गुटखा मांगने में किसी को शर्म नहीं आती. और ना ही देने वाला कुछ गलत सोचता है. मगर अधिकतर लोग अपना पानी, या शीतलपेय या दूसरी अन्य खाने की वस्तुएं explicitly ना तो मांगते हैं, और ना ही देते होंगे.
 
बात हो सकता है कि छोटी सी हो, मगर मैं अपनी समझ से कहता हूँ कि- जो लोग गलत होते हैं वे अपनी गलती में सबको शामिल करना चाहते हैं, और अपनी तरह के लोगों को सहारा देते हैं, ताकि कोई सिर्फ़ उनपर उंगली ना उठा सके. जो कि "सही" तरफ़ वाले नहीं करते, या शायद करना नहीं चाहते. ये भी हो सकता है कि शायद उन्हे इसकी जरुरत ही महसूस नही होती होगी.
 
क्या किसी के पास है जवाब इस बात का कि
 
क्यों टूटते सिर्फ़ मंदिर ही हैं?
क्यों सिर्फ़ मंदिरों में ही गोलियां चलती है?
क्यों सिर्फ़ मंदिर में ही लोग मरते हैं?
 
अंत में मेरा तो यही कहना है कि- जब तक न दो उन्हे सजा,  तब तक आयेगा नहीं मजा.

4 comments:

Udan Tashtari said...

दुखद एवं निन्दनीय कृत्य.

आपने जो कहानी का माध्यम लिया है, सांप वाली, वह पहली बार पढी है, बहुत प्रभावी है.

संजय बेंगाणी said...

"क्यों टूटते सिर्फ़ मंदिर ही हैं?
क्यों सिर्फ़ मंदिरों में ही गोलियां चलती है?
क्यों सिर्फ़ मंदिर में ही लोग मरते हैं?"

क्योंकि सारी धर्मनिर्पेक्षता का ठेका हमने ले रखा हैं.

Sagar Chand Nahar said...

धन्यवाद विजय,बहुत सुन्दर लिखने के लिये बधाई, इन्ही शब्दों को में वर्षों से लोगों को कहते आया हुँ कि सहनशीलता की एक हद होनी चाहिये, पर जब तक हम लोगों में एकता नहीं होगी ये लोग हमे इसी तरह डसते रहेंगे, जब तक हम जैन, ब्राम्हण आदि से उपर उठ कर हिन्दु नहीं हो जाते तब तक युँ ही मन्दिर टूटते रहेंगे.
कितने ही गौरी, गजनी, नादिरशाह और कितने ही सईद, लोदी, मुगल, सुरी,तुगलक,खीलजी, गुलाम और तोमार वंश हिन्दु धर्म को खत्म करने की चाह लिये इतिहास में दफ़न हो गये है पर यह धर्म आज भी कायम है, बस तब से अब तक कमी हमारी यही हे कि हमने सहनशीलता को नहीं छोड़ा और उन्होने "गरीब की जौरू सबकी भाभी" समझ कर हमें सताने में कोइ कमी नही रखी.

विवेक रस्तोगी said...

इसका जबाब तो भगवान खुद भी आ जाए तो नहीं दे सकते ओर एक बात और हमारे यहाँ ३३ करोड़ देवी देवता हैं और जब सब भगवान ही आपस में ही भिड़े रहते हैं तो मनुष्यों की क्या बिसात, क्या आपने किसी और धर्म में यह सब पढ़ा है