Tuesday, April 04, 2006

समझते थे मगर फ़िर भी...(जगजीत सिंह)

वैसे तो जगजीत सिंह जी की सारी गजलें बहुत अच्छी होती हैं,
बोल और आवाज, दोनो दिल की गहराईयों तक उतरते हैं।

मुझे उनमें से कुछ-एक, विशेष रुप से पसन्द हैं।
पेश-ए-खिदमत है उन्ही चुनिन्दा गजलों में से एक:

समझते थे, मगर फ़िर भी न रखी दुरियाँ हमने,
चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।

कोई तितली हमारे पास, आती भी तो क्या आती,
सजाए उम्र भर कागज के फ़ुल-ओ-पत्तियाँ हमने,
..चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।

युँ ही घुट घुट के मर जाना हमें मँजुर था लेकिन,
किसी कमजर्फ़ पर जाहिर ना की मजबुरियाँ हमनें,
..चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।

हम उस महफ़िल में बस इक बार सच बोले थे ऐ गालिब,
जुबां पर उम्र भर महसूस की चिंगारियाँ हमने,
..चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।

समझते थे, मगर फ़िर भी न रखी दुरियाँ हमने,
चरागों को जलाने में जला ली ऊँगलियाँ हमने।
 
है ना बढिया?

4 comments:

RC Mishra said...

वाकयी बहुत ही बढिया है,
और भी बढिया होगा अगर मुझे ये सुनने को मिले, आपके सौजन्य से :)

RC Mishra said...
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अनूप शुक्ल said...

गायक इस गजल के बेशक जगजीत सिंह हैं लेकिन इसके शायर स्व.वाली असी ही
तारीफ के असली हकदार हैं जिन्होंने इतनी अच्छी गजल लिखी। उनके कुछ शेर बहुत
उम्दा हैं:-
मुमकिन है मेरी आवाज दबा दी जाये,
मेरा लहजा कभी फरियाद नहीं हो सकता।

मुमकिन है मैं तुम्हें भूल भी जाऊं लेकिन
तू मेरी फिक्र से आजाद नहीं हो सकता।

गर तू इश्क में बरबाद नहीं हो सकता
जा तुझे कोई सबक याद नहीं हो सकता।

अनूप शुक्ल said...

चौथे शेर में गालिब की जगह वाली होना चाहिये क्योंकि यह गजल वाली असी ने लिखी है।