Saturday, April 08, 2006

जरुरत क्या है... (जगजीत सिंह)

पेश है मेरी पसंद की एक और गजल,
जगजीत सिंह जी के किसी एल्बम से.
उम्मीद करता हूँ, आपको भी पसंद आयेगी.
 
इस गजल का तीसरा शेर मुझे खासतौर से पसंद है, जो, 
आज की इस मतलबपरस्ती की दुनिया में,
अक्सर अपने आसपास महसूस करता हूँ.
 
बे-सबब बात बढाने की जरुरत क्या है,
हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
बे-सबब बात बढाने की जरुरत क्या है,
 
रंग आँखो के लिये, बू है दिमागों के लिये,
रंग आँखो के लिये, बू है दिमागों के लिये,
फ़ूल को हाथ लगाने की जरुरत क्या है!
...हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
 
तेरा कूचा, तेरा दर, तेरी गली काफ़ी है,
तेरा कूचा, तेरा दर, तेरी गली काफ़ी है,
बेठिकानों को, ठिकाने की जरुरत क्या है!
..हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
 
दिल से मिलने की तमन्ना ही नहीं जब दिल में,
दिल से मिलने की तमन्ना ही नहीं जब दिल में,
हाथ से हाथ, मिलाने की जरुरत क्या है!
..हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
 
बेसबब बात बढाने की जरुरत क्या है,
हम खफ़ा कब थे, मनाने की जरुरत क्या है!
 
टीप: अंतर्जाल पर ढुँढने की कोशिश नहीं की, कारण-की इच्छा नहीं हुई. जितनी और जैसी याद थी लिख दी है, अगर कुछ गलती हो तो क्षमा चाहुंगा.

4 comments:

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया है!

Kaul said...

बहुत बढ़िया कविता है, विजय जी। मुझे भी बहुत अच्छी लगती है। पर इसे ग़ज़ल नहीं नज़्म कहा जा सकता है। हम आम तौर पर हर उर्दू कविता को, ख़ास तौर पर जिसे किसी ग़ज़ल गायक ने गाया हो, ग़ज़ल समझते हैं, पर जिस तरह हर कविता दोहा, चौपाई या हाइकू नहीं होती, हर नज़्म ग़ज़ल नहीं होती।

Yugal said...

अच्छी गजल है।

Udan Tashtari said...

विजय भाई
अच्छा लगा.
समीर लाल